देश को आजाद हुए 67 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन आज इतने वर्षो के बाद भी एक ऐसा वर्ग है जो दासतान भरी जिन्दगी जीने को मजबूर है या ये कहें कि वह ह्यआज भी मजबूर है। चाहे हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड हो या शरीर को झुलसा देने वाली भीषण गर्मी, मजदूर के लिए सारे मौसम एक जैसे ही हैं। इस मजदूर वर्ग की विडम्बना आज तक कोई समझ नही पाया। वो बेबस है,बेहाल है, तकलीफों से जूझ रहा है पर उसकी दर्दनाक आवाज सुनने वाला कोई नही है। अफसोस इस बात का है कि इनकी बेबसी और शोषण को रोकने के नाम पर खानापूर्ति करते हुए एक दिन निर्धारित कर दिया गया जिसे मजदूर दिवस कहा जाता है। अब लाख टके का सवाल ये है कि आखिर मजदूर दिवस पर ही इन असहाय मजदूरों की याद क्यों आती है। मोहम्मद फाजिल की एक रिपोर्ट।
इन्टरवल एक्सप्रेस
लखनऊ। कड़ी धूप में झुलसता शरीर, बदन से टपकता पसीना या कड़ाके की ठंड में बदन पर एक कपड़े के सहारे पूरे दिन काम करके दो वक्त की रोटी के लिए जी-तोड़ मेहनत करने वाले मजदूरों की याद बस मजदूर दिवस पर ही आती है। मजदूरों की असली हालत का अंदाजा लगाना हो तो दिहाड़ी मजदूरों की स्थिति को देखकर आसानी से लगाया जा सकता है। मजदूर दिवस केवल भरत ही नहीं बल्कि अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। •ाारत में मालिक व पूंजीपति श्रम कानूनों के लचीलेपन के कारण भी मजदूरों का शोषण करके ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरना चाहते हैं। जानकारों के मुताबिक, यदि मजदूरी और उनको दी जाने वाली सुविधाएं बढ़ती हैं तो उद्योगपतियों को मिलने वाले फायदे का हिस्सा कम होगा। हमारे देश के उद्योगपति और ठेकेदार ठीक इसी नीति पर चल रहे हैं। जिसमें वो कानून के लचीलेपन का फायदा उठाकर गरीब मजदूरों और दिहाड़ी मजदूरों का शोषण करने में लगा है।
कब आरंंभ हुआ मजदूर दिवस
आजादी से पहले और उसके बाद भी देश में मजदूरों की स्थिति बहुत खराब रही। उनसे फैक्ट्ररी मालिक चौबीस घंटे में 18 से 20 घंटे तक काम करवाते थे और मेहनताने के नाम पर उनकी मेहनत का एक चौथाई पैसा भी नहीं दिया जाता था। अपने हक और अधिकारों के लिए मजदूरों ने आवाज उठाई । सबसे पहले 1877 में नागपुर में मजदूरों ने कम मजदूरी दरों को लेकर हड़ताल की थी। इसके बाद 1882 से 1890 तक 25 बार हड़ताल हुई। 1920 में आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस संगठन की स्थापना हुई। •ाारत में पहली बार 1923 में मई दिवस मनाया गया। मद्रास के समुद्र तटों पर मजदूरों की आम स•ाा हुई जिसमें 1 मई को सार्वजनिक छुट्टी की मांग की गई। काम में 8 घंटे तय करने के लिए सबसे पहले रेलवे मजदूरों ने आवाज उठायी। •ाारत में पहला आधुनिक श्रमसंघ 1971 में लेबर यूनियन के नाम से मद्रास में बना।
सरकार की योजनाओं का नही मिल रहा लाभ
सरकार द्वारा मजदूरों के हित के लिए और उनको रोजगार देने के लिए कई योजना भी चलाई जा रही है मगर उन योजनाओ के प्रचार प्रसार में कमी व जागरुकता न होने के कारण मजदूरों को उनका हक नहीं मिल रहा है। अगस्त 2005 में •ाारत सरकार ने देश के 94 फीसदी असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्र के मजदूरों को रोजगार के शोषण मुक्त अवसर उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाया और 2 फरवरी 2006 से देश के सबसे जरूरतमंद और मानव विकास के नजरिये से पिछड़े हुए 200 जिलों में लागू किया। इस कानून के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले हर परिवार को वर्ष में सौ दिन शारीरिक श्रम आधारित रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है। यह एक मांग आधारित योजना है, जिसमें न्यूनतम मजदूरी पर श्रम करने वाले हर व्यक्ति को उसके द्वारा मांग किये जाने पर रोजगार उपलब्ध कराया जायेगा। यदि रोजगार मांगने के 15 दिन के •ाीतर रोजगार नहीं दिया जाता है तो उसके एवज में बेरोजगारी •ात्ता दिया जायेगा। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय पेंशन स्कीम, जननी पेंशन योजना, आरएसबीवाई, आम आदमी बीमा योजना, हतकरघा बुनकर कल्याण समिति स्कीम इसी का एक हिस्सा है।
औद्योगिक क्रातिं से पहुंचा नुकसान
भारत में जब औद्योगिक क्रांति का जन्म हुआ तो किसी को नहीं पता था कि आने वाले समय में इसका परिणाम ऐसा होगा कि मजदूरों को सबसे ज्यादा कीमत उठानी पड़ेगी। औद्योगिक क्रांति में मजदूरों के अधिकारों का हनन होने लगा। इस क्रांति में मजदूरों से 18 से 20 घंटे तक काम लिया जाता था जिसमे उनके अवकाश और दुर्घटना में घायल होने पर मुआवजे तक की व्यवस्था नहीं थी। उनके सामने अपने •ारण-पोषण की •ाी जिम्मेदारी बढ़ने लगी। ऐसे में उनके आगे आत्महत्या करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था तब जाकर उनके अधिकारों के लिए हजारों मजदूरों ने एक होकर अपने हक के लिए आवाज उठाई।
जागरुकता के अभव में फेल हो रही योजनाएं
मजदूरों के हित में वर्ष 2006 में केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना,नरेगा को चालू किया जिसका नाम बदलकर महात्मा गांधी से जोड़ा गया। यह अब मनरेगा कहलाती है। इस योजना के तहत मजदूर को लग•ाग दो सौ रुपये प्रतिदिन मजदूरी देने का प्रावधान है लेकिन जागरूकता के अ•ााव में मजदूरों को इस योजना का ला•ा नही मिल रहा है। श्रमिकों के लिए मजदूर दिवस की कोई अहमियत नही रह गई है। इसका मूल कारण जागरूकता का अ•ााव है। श्रमिक संगठन के अ•ााव में ऐसी स्थिति बनी हुई है।
मालिकों के आगे बेबस हो रहे मजदूर
मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ने के लिए कई संगठनो ने एक होकर इसकी शुरुआत की थी मगर वर्तमान समय में ये संगठन अपने मूल मकसद से •ाटक गये हैं। आपसी द्वेष और वर्चस्व को लेकर संगठन एक दूसरे से अलग होते चले गये। इसके अलावा कई क्षेत्रों में तो मजदूरों की यूनियन ही नहीं बनी है, जिस कारण उनकी आवाज उठाने के लिए कोई नेता ही नहीं है और उनको अपने अधिकारों की जानकारी तक नही हैं। ऐसे में मजदूर मालिकों के आगे बेबस हैं और कम वेतन में •ाी काम करने को मजबूर हैं। कई मजदूर संघ अपनी दुकान चलाने के लिए मजदूरों की एकता का फायदा उठा रहे हैं। ऐसे में इन सबके बीच गरीब और बेबस मजदूर पिस रहा है।
दिहाड़ी मजदूरों की हालत दयनीय
हर साल काम के दौरान हजारों मजदूरों की मौत हो जाती है। सरकारी, गैर सरकारी या इसी तरह के अन्य संस्थानों में काम करते समय दुर्घटनाग्रस्त हुए लोगों या उनके आश्रितों को देर सवेर मुआवजे के नाम पर कुछ न कुछ तो मिल ही जाता है। इसमें सबसे दयनीय हालत दिहाड़ी मजदूरों की है। पहले तो इन्हें काम ही मुश्किल से मिलता है और अगर मिलता •ाी है तो वो स्थाई रुप से नहीं होता है इसके अलावा उनका मेहनतना •ाी बहुत कम होता है। यदि काम के दौरान दिहाड़ी मजदूर की मौत हो जाये तो इन्हें मुआवजा •ाी नहीं मिल पाता है। देश में कितने ही ऐसे परिवार हैं, जिनके कमाऊ सदस्य दुर्घटनाग्रस्त होकर विकलांग हो गए या फिर मौत का शिकार हो चुके हैं, लेकिन उनके आश्रितों को मुआवजे के रूप में एक नया पैसा तक नसीब नहीं हो पाता। ऊंची इमारतों पर चढ़कर काम कर रहे मजदूरों को सुरक्षा बैल्ट तक मुहैया नहीं कराई जाती। पटाखा फैक्ट्रियों, रसायन कारखानों जैसे कामों में लगे मजदूर सुरक्षा साधनों की कमी के कारण होने वाले हादसों में अपनी जान गंवा बैठते हैं। •ावन निर्माण के दौरान मजदूरों के मरने की खबरें आए दिन अखबारों में छपती रहती हैं। इस सबके बावजूद मजदूरों की सुरक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। अगर मामला मीडिया ने उछाल दिया तो प्रशासन और राजनेताओं की नींद टूट जरूर जाती है, लेकिन कुछ वक़्त बाद वो फिर चैन की नींद सो जाते हैं।
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