धूमिल हो रही संगीत घराने की पहचान
जीस्ट
जीवन के उतार चढ़ाव में आज जहां देश के सभी वर्ग अपनी विभन्न आवश्यकताओं और इच्छाओं को पूरा करने की दौड़ में सूकून खोते जा रहे हैं, ठीक उसी राह पर संगीत भी अपनी पहचान खोता जा रहा है। संगीत की इन शैलियों में सबसे ज्यादा नकारात्मक असर शास्त्रीय संगीत पर पड़ रहा है। आज का युवा वर्ग भी वेस्टर्न संगीत की धुनों पर थिरकता नजर आता है। आज समाज में कोई भी वर्ग शास्त्रीय संगीत को सीखने, उसके महत्व को जानने और उसकी उपयोगिता को स्वीकारने के लिए तैयार नही है। मोहम्मद फाजिल की रिपोर्ट...
इन्टरवल एक्सप्रेस
लखनऊ। वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्तर पर लखनऊ संगीत घरानों का प्रदर्शन बहुत ही खराब होता जा रहा है। रियालटी शो के दौर में जहां एक तरफ संगीत को एक अच्छा प्लेटफॉर्म मिला है, वहीं यहां के घरानों के प्रदर्शन का स्तर दिन ब दिन गिरता जा रहा है।
शास्त्रीयसंगीत, जिसको सुनकर एक रुहानी सुकून मिलता है। ऐसे संगीत की धूम देश के साथ विदेशों में भी खूब रही है। इसके बावजूद अपने ही देश में ये शास्त्रीय संगीत उपेक्षा का शिकार हो रहा है। कहते है संगीत में वो ताकत होती है कि वो बेजान चीजों में भी जान डाल देती है। प्राचीन काल में तानसेन जब गाते थे तो बारिश होने लगती थी। मोर संगीत में मग्न होकर नाचने लगते थे। परन्तु वर्तमान समय में वही संगीत की शिक्षा देने वाले संगीत उस्ताद और उनके घराने अपने ही घर में बेगाने हो चुके हैं। संगीत सीखना और सिखाना बहुत पुरानी परम्परा है जो सदियों से चली आ रही है। पहले के दौर में गायकों को राजशाही सम्मान मिलता था, मगर वर्तमान समय में मिलता है तो सिर्फ उपेक्षा और तिरस्कार।
लखनऊ घराने का इतिहास
जानकारों के अनुसार, 1719 से 1748 तक संगीत का मुख्य घराना दिल्ली में हुआ करता था। वहां के तत्कालीन शासक मोहम्मद शाह रंगीले संगीत के बहुत बडेÞ प्रेमी थे। उनके दरबार में संगीतकारों का एक बड़ा वर्ग शमिल था। जब नादिर शाह ने दिल्ली पर आक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया तब मोहम्मद शाह को ये लगा था कि वो संगीत में डूबा था, इसलिए दिल्ली को बचा नहीं पाया। तब उसने अपने सभी संगीतकारों को हटा दिया। वहीं मोईन खां जो तबला वादक थे वो लखनऊ आ गये और यहीं पर अपने घराने की स्थापना की। उसके बाद यहीं के घरानों से कुछ लोग आगरा, रामपुर, ग्वालियर, जयपुर, जैसे शहरों में जाकर बसे और नए घरानों की स्थापना की। गुलाम रसूल के दो बेटे शक्कर खां और मक्खन खां उस दौर में बहुत बड़े गायक हुए जिसमें मक्खन खां ने ग्वालियर घराने की स्थापना की। प्राचीन काल में नवाब और जमींदार के पास घरानों के भरण पोषण की पूरी जिम्मेदारी थी, जिसके कारण घरानों के गायकों का एक काम था संगीत का रियाज करना और लोगों को सिखाना। लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के समय इन घरानों को बहुत बढ़ावा मिला लेकिन उसके बाद वक्त के साथ इनकी स्थिति बद से बदतर होती गई।
राष्ट्रीय स्तर पर पहचान खोता संगीत
शहर में एक वो दौर था कि संगीत सीखने वालों की लाइन लगी रहती थी और लोग अपना सब कुछ छोड़कर संगीत के प्रति समर्पित रहते थे, लेकिन वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्तर पर यहां के संगीत के खराब प्रदर्शन ने लोगों में सीखने की इच्छा को मार दिया है। पिछले पांच सालों से रियालटी शो में कोई भी लखनऊ का प्रतिनिधित्व करता नहीं दिखा जिसके कारण बरसों पुरानी कला अपनी पहचान खोने के कगार पर आ गई है।
सरकार का उदासीन रवैया
संगीत और घरानों के प्रति मौजूदा समय में सरकार का उदासीन रवैया भी इन घरानों को तोड़ने में अहम भूमिका निभा रहा है। सरकार द्वारा इन संगीत घरानों के संरक्षण के लिए सकारात्मक कदम न उठाने की वजह से ये घराने अपने ही घर में लावारिस हो गए हैं। जो बजट पास होता है, उसका भी पूरा पैसा इनके संरक्षण में नहीं लग पाता है। कई नामचीन संगीत उस्ताद सरकार के इसी रवैये के कारण दूसरे प्रदेशों में जाकर रहने लगे हंै। बिरजू महाराज और हरि प्रसाद चौरसिया ने कई बार सरकार से गुरुकुल खोलने के लिए जमीन की मांग की, मगर उसके बाद भी उनको जमीन नहीं मिली।
श्रद्धा भाव की भी कमी
पहले जमाने में लोग अपने घरानों के अलावा किसी अन्य को नहीं सिखाते थे और उसके भी नियम थे कि लोग संगीत उस्ताद के घर में रहकर सीखते थे और जब तक उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो जाती थी तब तक वो बाहर गा नहीं सकते थे। इसके अलावा दूसरे घरानों के गायकों को सुनना तक मना था। शिक्षकों में गुरु के प्रति श्रद्धा का भाव होता था और वैसे ही गुरुओं में अपने शिष्यों को उच्च संगीत शिक्षा देना एक मात्र लक्ष्य होता था। आज के समय में दोनों ही रुप में पहले जैसा श्रद्धा भाव नहीं रहा।
गायन अंतिम पड़ाव पर
घरानों में नृत्य, तबला और गायन की अपनी अलग पहचान होती है जिसमें ठुमरी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। इसके बाद नृत्य, गायन का क्षेत्र लगभग खत्म होने की कगार पर है। शहर के गायकों की स्थिति मौजूदा समय में बहुत खराब है। इसका मुख्य कारण है सरकार और लोगों की उदासीनता। संगीत ने इनको हाशिये पर धकेल दिया है। अगर यहीं स्थिति बनी रही तो आने वाले कुछ सालों में सभी घरानों से गायिकी खत्म हो जायेगी।
वर्जन
आज के समय में घराने शुद्ध नहीं रहे। पैसा संगीत से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। पहले की तरह न गुरु रहे, न ही शिष्य। अब हर व्यक्ति जल्द से जल्द पैसा और प्रसिद्धी पाने को लालायित हो रहा है। इस कारण संगीत सीखने और सिखाने में जो श्रद्धा भव होना चाहिए वो ना के बराबर रह गया है जिसकी वजह से शास्त्रीय संगीत का दायरा सिमट गया हैं। ::: तेज सिंह ताक
2::: सरकार की उदासीनता की वजह से ये घराने आने वाले वक्त में अपनी पहचान पूरी तरह से खो देंगे। पिछले वर्ष संगीत नाट्य कला अवार्ड देने की घोषणा की गई थी मगर वो सिर्फ घोषणा रह गई। जहां तक संगीत की बात है तो असली संगीत को लोग भूल गये हैं। आज के समय में भोजपुरी और फूहड़ फिल्मी गानों को लोग सुन रहे हंै। हकीकत में वो शास्त्रीय संगीत के आगे कुछ नहीं है। मदारी का खेल दिखाने वाला बंदर लोगों का मनोरंजन करता है मगर वो आर्टिस्ट नहीं है। असली गायन तो शास्त्रीय संगीत ही है।::::गुलशन भारती,लखनऊ कव्वाल घराना
3::::: शास्त्रीय संगीत के कलाकारों के साथ भेदभाव हो रहा है। जिसने संगीत के लिए अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान कर दी, उसको गायिकी के लिए पांच लाख रुपये मिलते है और जो फू हड़ गाने गाते हैं उनको पचास लाख रुपये दिये जाते हैं। आज के समय में हर बेसुरा भी सिंगर बन जाता है। टेक्नोलॉजी के माध्यम से आवाज को मोटा और महीन किया जा रहा है। इसके अलावा घरानों में संगीत का माहौल होता था, जिसमें बच्चे आराम से सीख जाते थे। आज के समय में लोग सीखने के साथ ही टीवी पर दिखना चाहते हैं। शिक्षा पूरी नहीं होती है और स्टेजों पर गाना शुरु कर देते हंै। ऐसे में सरकार ने यदि कोई हस्तक्षेप नहीं किया तो आने वाले समय में घरानों का अस्तित्व खत्म हो जायेगा।::::: कैलाश जोशी, गजल गायक
शिष्यो के वर्जन
शास्त्रीय संगीत बाकी संगीतों के मुकाबले काफी कठिन है। इसको सीखने के लिए श्रद्धाभाव और लगन बहुत जरुरी है। सौ में से पांच ही लोग ऐसे होते हैं जो पूरी तरह से संगीत को सीखने के लिए समर्पित होते है। कई लोग सही ढ़ंग से मार्गदर्शन न मिलने के कारण जो सीखना चाहते हैं, वो नहीं सीख पा रहे है । ::::: दिनकर, शास्त्रीय संगीत छात्र
2:: बॉलीवुड संगीत और शास्त्रीय संगीत में काफी फर्क है। पहले लोग इस क्षेत्र में पूरी तरह निपुण होने के बाद ही स्टेज पर गाते थे। आज के समय में बिना शिक्षा पूरी करे ही स्टेज पर गाने पहुंच जाते है। इसके अलावा रियालिटी शो मेरी नजर में काफी हद तक सही है, मगर लोगों को उसमें पूरी तैयारी से जाना चाहिए। आज भी शास्त्रीय संगीत का कोई मुकाबला नहीं है।::::चिन्मय त्रिपाठी , छात्र
3::: संगीत पढ़ाई नहीं कला है, जिसे सबसे अधिक मंच की आवश्यकता होती है। ऐसे में संस्थानों को अधिक ध्यान देते हुए अपने स्तर से प्रयास कर अपने छात्रों को कलाकार बनने के लिए मंच उपलब्ध कराना चाहिए। विडम्बना ये है कि वे आगे बढ़ने के बाद संस्थान के प्रति आभार जताना या स्वयं के उस संस्थान से जुडेÞ होने की बात बताना जरूरी ही नहीं समझते, इसलिए ऐसा लगता है कि संस्थान ने कोई कलाकार नहीं दिया है। :::::::गरिमा सिंह (गायक)
#संगीत #घराना #गायक #लखनऊ #शास्त्रीयसंगीत
जीस्ट
जीवन के उतार चढ़ाव में आज जहां देश के सभी वर्ग अपनी विभन्न आवश्यकताओं और इच्छाओं को पूरा करने की दौड़ में सूकून खोते जा रहे हैं, ठीक उसी राह पर संगीत भी अपनी पहचान खोता जा रहा है। संगीत की इन शैलियों में सबसे ज्यादा नकारात्मक असर शास्त्रीय संगीत पर पड़ रहा है। आज का युवा वर्ग भी वेस्टर्न संगीत की धुनों पर थिरकता नजर आता है। आज समाज में कोई भी वर्ग शास्त्रीय संगीत को सीखने, उसके महत्व को जानने और उसकी उपयोगिता को स्वीकारने के लिए तैयार नही है। मोहम्मद फाजिल की रिपोर्ट...
इन्टरवल एक्सप्रेस
लखनऊ। वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्तर पर लखनऊ संगीत घरानों का प्रदर्शन बहुत ही खराब होता जा रहा है। रियालटी शो के दौर में जहां एक तरफ संगीत को एक अच्छा प्लेटफॉर्म मिला है, वहीं यहां के घरानों के प्रदर्शन का स्तर दिन ब दिन गिरता जा रहा है।
शास्त्रीयसंगीत, जिसको सुनकर एक रुहानी सुकून मिलता है। ऐसे संगीत की धूम देश के साथ विदेशों में भी खूब रही है। इसके बावजूद अपने ही देश में ये शास्त्रीय संगीत उपेक्षा का शिकार हो रहा है। कहते है संगीत में वो ताकत होती है कि वो बेजान चीजों में भी जान डाल देती है। प्राचीन काल में तानसेन जब गाते थे तो बारिश होने लगती थी। मोर संगीत में मग्न होकर नाचने लगते थे। परन्तु वर्तमान समय में वही संगीत की शिक्षा देने वाले संगीत उस्ताद और उनके घराने अपने ही घर में बेगाने हो चुके हैं। संगीत सीखना और सिखाना बहुत पुरानी परम्परा है जो सदियों से चली आ रही है। पहले के दौर में गायकों को राजशाही सम्मान मिलता था, मगर वर्तमान समय में मिलता है तो सिर्फ उपेक्षा और तिरस्कार।
लखनऊ घराने का इतिहास
जानकारों के अनुसार, 1719 से 1748 तक संगीत का मुख्य घराना दिल्ली में हुआ करता था। वहां के तत्कालीन शासक मोहम्मद शाह रंगीले संगीत के बहुत बडेÞ प्रेमी थे। उनके दरबार में संगीतकारों का एक बड़ा वर्ग शमिल था। जब नादिर शाह ने दिल्ली पर आक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया तब मोहम्मद शाह को ये लगा था कि वो संगीत में डूबा था, इसलिए दिल्ली को बचा नहीं पाया। तब उसने अपने सभी संगीतकारों को हटा दिया। वहीं मोईन खां जो तबला वादक थे वो लखनऊ आ गये और यहीं पर अपने घराने की स्थापना की। उसके बाद यहीं के घरानों से कुछ लोग आगरा, रामपुर, ग्वालियर, जयपुर, जैसे शहरों में जाकर बसे और नए घरानों की स्थापना की। गुलाम रसूल के दो बेटे शक्कर खां और मक्खन खां उस दौर में बहुत बड़े गायक हुए जिसमें मक्खन खां ने ग्वालियर घराने की स्थापना की। प्राचीन काल में नवाब और जमींदार के पास घरानों के भरण पोषण की पूरी जिम्मेदारी थी, जिसके कारण घरानों के गायकों का एक काम था संगीत का रियाज करना और लोगों को सिखाना। लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के समय इन घरानों को बहुत बढ़ावा मिला लेकिन उसके बाद वक्त के साथ इनकी स्थिति बद से बदतर होती गई।
राष्ट्रीय स्तर पर पहचान खोता संगीत
शहर में एक वो दौर था कि संगीत सीखने वालों की लाइन लगी रहती थी और लोग अपना सब कुछ छोड़कर संगीत के प्रति समर्पित रहते थे, लेकिन वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्तर पर यहां के संगीत के खराब प्रदर्शन ने लोगों में सीखने की इच्छा को मार दिया है। पिछले पांच सालों से रियालटी शो में कोई भी लखनऊ का प्रतिनिधित्व करता नहीं दिखा जिसके कारण बरसों पुरानी कला अपनी पहचान खोने के कगार पर आ गई है।
सरकार का उदासीन रवैया
संगीत और घरानों के प्रति मौजूदा समय में सरकार का उदासीन रवैया भी इन घरानों को तोड़ने में अहम भूमिका निभा रहा है। सरकार द्वारा इन संगीत घरानों के संरक्षण के लिए सकारात्मक कदम न उठाने की वजह से ये घराने अपने ही घर में लावारिस हो गए हैं। जो बजट पास होता है, उसका भी पूरा पैसा इनके संरक्षण में नहीं लग पाता है। कई नामचीन संगीत उस्ताद सरकार के इसी रवैये के कारण दूसरे प्रदेशों में जाकर रहने लगे हंै। बिरजू महाराज और हरि प्रसाद चौरसिया ने कई बार सरकार से गुरुकुल खोलने के लिए जमीन की मांग की, मगर उसके बाद भी उनको जमीन नहीं मिली।
श्रद्धा भाव की भी कमी
पहले जमाने में लोग अपने घरानों के अलावा किसी अन्य को नहीं सिखाते थे और उसके भी नियम थे कि लोग संगीत उस्ताद के घर में रहकर सीखते थे और जब तक उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो जाती थी तब तक वो बाहर गा नहीं सकते थे। इसके अलावा दूसरे घरानों के गायकों को सुनना तक मना था। शिक्षकों में गुरु के प्रति श्रद्धा का भाव होता था और वैसे ही गुरुओं में अपने शिष्यों को उच्च संगीत शिक्षा देना एक मात्र लक्ष्य होता था। आज के समय में दोनों ही रुप में पहले जैसा श्रद्धा भाव नहीं रहा।
गायन अंतिम पड़ाव पर
घरानों में नृत्य, तबला और गायन की अपनी अलग पहचान होती है जिसमें ठुमरी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। इसके बाद नृत्य, गायन का क्षेत्र लगभग खत्म होने की कगार पर है। शहर के गायकों की स्थिति मौजूदा समय में बहुत खराब है। इसका मुख्य कारण है सरकार और लोगों की उदासीनता। संगीत ने इनको हाशिये पर धकेल दिया है। अगर यहीं स्थिति बनी रही तो आने वाले कुछ सालों में सभी घरानों से गायिकी खत्म हो जायेगी।
वर्जन
आज के समय में घराने शुद्ध नहीं रहे। पैसा संगीत से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। पहले की तरह न गुरु रहे, न ही शिष्य। अब हर व्यक्ति जल्द से जल्द पैसा और प्रसिद्धी पाने को लालायित हो रहा है। इस कारण संगीत सीखने और सिखाने में जो श्रद्धा भव होना चाहिए वो ना के बराबर रह गया है जिसकी वजह से शास्त्रीय संगीत का दायरा सिमट गया हैं। ::: तेज सिंह ताक
2::: सरकार की उदासीनता की वजह से ये घराने आने वाले वक्त में अपनी पहचान पूरी तरह से खो देंगे। पिछले वर्ष संगीत नाट्य कला अवार्ड देने की घोषणा की गई थी मगर वो सिर्फ घोषणा रह गई। जहां तक संगीत की बात है तो असली संगीत को लोग भूल गये हैं। आज के समय में भोजपुरी और फूहड़ फिल्मी गानों को लोग सुन रहे हंै। हकीकत में वो शास्त्रीय संगीत के आगे कुछ नहीं है। मदारी का खेल दिखाने वाला बंदर लोगों का मनोरंजन करता है मगर वो आर्टिस्ट नहीं है। असली गायन तो शास्त्रीय संगीत ही है।::::गुलशन भारती,लखनऊ कव्वाल घराना
3::::: शास्त्रीय संगीत के कलाकारों के साथ भेदभाव हो रहा है। जिसने संगीत के लिए अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान कर दी, उसको गायिकी के लिए पांच लाख रुपये मिलते है और जो फू हड़ गाने गाते हैं उनको पचास लाख रुपये दिये जाते हैं। आज के समय में हर बेसुरा भी सिंगर बन जाता है। टेक्नोलॉजी के माध्यम से आवाज को मोटा और महीन किया जा रहा है। इसके अलावा घरानों में संगीत का माहौल होता था, जिसमें बच्चे आराम से सीख जाते थे। आज के समय में लोग सीखने के साथ ही टीवी पर दिखना चाहते हैं। शिक्षा पूरी नहीं होती है और स्टेजों पर गाना शुरु कर देते हंै। ऐसे में सरकार ने यदि कोई हस्तक्षेप नहीं किया तो आने वाले समय में घरानों का अस्तित्व खत्म हो जायेगा।::::: कैलाश जोशी, गजल गायक
शिष्यो के वर्जन
शास्त्रीय संगीत बाकी संगीतों के मुकाबले काफी कठिन है। इसको सीखने के लिए श्रद्धाभाव और लगन बहुत जरुरी है। सौ में से पांच ही लोग ऐसे होते हैं जो पूरी तरह से संगीत को सीखने के लिए समर्पित होते है। कई लोग सही ढ़ंग से मार्गदर्शन न मिलने के कारण जो सीखना चाहते हैं, वो नहीं सीख पा रहे है । ::::: दिनकर, शास्त्रीय संगीत छात्र
2:: बॉलीवुड संगीत और शास्त्रीय संगीत में काफी फर्क है। पहले लोग इस क्षेत्र में पूरी तरह निपुण होने के बाद ही स्टेज पर गाते थे। आज के समय में बिना शिक्षा पूरी करे ही स्टेज पर गाने पहुंच जाते है। इसके अलावा रियालिटी शो मेरी नजर में काफी हद तक सही है, मगर लोगों को उसमें पूरी तैयारी से जाना चाहिए। आज भी शास्त्रीय संगीत का कोई मुकाबला नहीं है।::::चिन्मय त्रिपाठी , छात्र
3::: संगीत पढ़ाई नहीं कला है, जिसे सबसे अधिक मंच की आवश्यकता होती है। ऐसे में संस्थानों को अधिक ध्यान देते हुए अपने स्तर से प्रयास कर अपने छात्रों को कलाकार बनने के लिए मंच उपलब्ध कराना चाहिए। विडम्बना ये है कि वे आगे बढ़ने के बाद संस्थान के प्रति आभार जताना या स्वयं के उस संस्थान से जुडेÞ होने की बात बताना जरूरी ही नहीं समझते, इसलिए ऐसा लगता है कि संस्थान ने कोई कलाकार नहीं दिया है। :::::::गरिमा सिंह (गायक)
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