जीस्ट : प्राचीनकाल से प्रचलित मूर्तिकला हमारे देश की संस्कृति व स•यता को अपने में पिरोए हुए है। आज भी सभी हिंदू परिवारों में मिट्टी की खूबसूरत मूर्तियां उनके मंदिरों की शोभा बढ़ाती दिखाई देती हैं लेकिन इन मूर्तियों पर दिन-रात काम कर, कठोर पत्थरों को हाथों से तराशकर, उनमें खूबसूरत रंग भरने वाले मूर्तिकारों के हाथ आज भी पूरी तरह खाली हैं। यह काम करते-करते उनके हाथों के चमड़े तक छिल जाते हैं और हथेलियां कठोर हो चुकी हैं। बावजूद इसके उनका दर्द समझने वाला कोई नहीं है। सरकार से उम्मीद छोड़ चुके ये मूर्तिकार अब अपनी आगे की पीढ़ी को इसमें शामिल नहीं करना चाह रहे। यहीं वजह है कि अब हमारे देश व संस्कृति की पहचान मूर्तिकला का हमारे देश से अस्तित्व ही खत्म होता जा रहा है और अब ये विलुप्त होने की कगार पर है।
इन्टरवल एक्सप्रेसलखनऊ। पत्थरों को अपने हाथों से घंटो बारीकी से तराशकर उसे एक सुंदर रूप देना, फिर उसमें रंग भरना एक-एक कर रंगों के सूखने का इंतजार और फिर एक ऐसी मूरत सामने रखना, जिसे देखकर आप और हम सभी नतमस्तक हो जाएंगें। आप सोच रहे हैं ऐसा क्या है इस मूरत में तो आइए हम आपको एक ऐसी दुनिया की सैर कराते हैं जिससे पहले आप कभी रूबरू नहीं हुए होंगे। हम उन मूर्तिकारों की बात कर रहे हैं जो कि कड़ी धूप और धूल के बीच आड़े तिरछे पत्थरों को ऐसी सुंदर आकृतियों में ढालते हैं जिन्हें हम अपने घर के मंदिर में सजाते हैं और फिर उनकी पूजा करते हैं। भगवान् की ये मूर्तियां हमें जहां ईश्वर के दर्शन कराती हैं वहीं हमारे घर की शोभा बढ़ाती हैं, लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि इन्हें बनाने वाले मूर्तिकारों को इसके बदले क्या मिलता है शायद नाम मात्र का लाभ जिससे कि वह जीविकोपार्जन भी ठीक से नहीं कर पाते हैं। यहीं वजह है कि अब धीरे-धीरे हमारे समाज से मूर्तिकला विलुप्त सी होती जा रही है। हमारी संस्कृति और सभ्यता की पहचान इस मूर्तिकला के विलुप्त होने से हमारे देश को क्या हानि होगी, शायद इसका अंदाजा भी हमारी सरकार को नहीं है। तभी तो वह इनकी उन्नति के लिए कुछ भी नहीं करती।
मशीनें भी हो जाती हैं फेल
अपनी जिंदगी को बेरंग कर मूर्तियों को रंगीन बनाने का हुनर जो एक मूर्तिकार में होता है वो किसी आधुनिक मशीन द्वारा भी नहीं किया जा सकता है। मिटटी को सांचे में ढालकर उसको किसी भी आकार में परिवर्तित करने का हुनर बस एक मूर्तिकार के ही बस का है, मगर वक्त के साथ मूर्ति और हस्तशिल्प कला विलुप्त होती जा रही है। शहर में कभी मूर्तिकारों की मांग हुआ करती थी मगर बाजारीकरण और आधुनिकता की चकाचौंध ने इस कला और उसके कलाकारों की जिंदगी में अंधेरा कर दिया है। वर्तमान समय में शहर में गिने चुने ही लोग मूर्तिकला को जिंदा रखे हुए हैं लेकिन उनसे कभी जब पूछो कि क्या वह अपनी आने वाली पीढ़ी को इसे सौंपेंगे तो वह साफ इंकार कर देते हैं। उनका कहना बस इतना ही होता है कि इस कला ने हमें कुछ नहीं दिया। हम नहीं चाहते कि हमारी अगली पीढ़ी भी इसमें पड़ जाए और उनका जीविकोपार्जन भी हमारी तरह मुश्किल हो जाए।
मूर्तिकला का इतिहास
प्राचीनकाल से ही मूर्तिकला का अपना एक अलग वजूद रहा है। चाहे वो सिंधु घाटी स•यता हो या मोहनजोदड़ो, मुगल काल का दौर हो या नवाबों का समय हो, सभी कालों में मूर्तिकारों का सम्मान और रुतबा था। •ाारतीय मूर्तिकारों ने मूर्तिकला को एक अलग आयाम दिया। भारतीय मूर्तिकला में देवी देवताओं की मूर्तियों को बनाने का प्रचलन बहुत पुराना है। पुराने समय की दीवारों और गुफाओं में इसके प्रमाण भी मिलते हंै। मूर्तिकला और हस्त शिल्प की पराकाष्ठा को खजुराहो में और मुंबई स्थित एलीफेंटा गुफाओं में देखा जा सकता है। इसके अलावा नवाबों की नगरी में भी उनके द्वारा बनवाई गर्इं इमारतों और द्वारों पर हस्तशिल्प की झलक साफ नजर आती है। हुसैनाबाद इमामबाड़े के घंटाघर के समीप 19वीं शताब्दी में बनी पिक्चर गैलरी में लगभग सभी नवाबों की तस्वीरें देखी जा सकती हैं। यह गैलरी उस अतीत की याद दिलाती है जब यहां नवाबों का डंका बजता था। इसी तरह गोमती नदी की सीमा पर बनी तीन इमारतों में मोती महल प्रमुख है।
बाजारीकरण से हुआ नुकसान
मूर्तिकारों का मानना है कि पिछले दो दशक में मूर्तिकला का बाजारीकरण तेजी से हुआ है जिसके कारण मूर्तिकारों को उनकी कला का उचित मूल्य नहीं मिलता है। बाजारों में प्लास्टिक और फाइबर के खिलौने और मूर्तियों के आ जाने से मूर्तिकारों द्वारा बनाई गई मूर्तियों की बिक्री पर काफी असर पड़ता रहा है। दुकानों और मॉलो में देवी देवताओं की मूर्तियां सस्ते दामों पर मिल जाती है जबकि मूर्तिकारों की मूर्ति की लागत भी उससे ज्यादा आ जाती है। दीपावली पर मूर्ति की कीमत अच्छी मिल जाती है मगर सादे दिनों में तो बिक्री के लिए महीनों का इंतजार करना पड़ता है। इसके अलावा शहर की मूर्तियों की डिमांड अन्य प्रदेशों और जनपदों तक होती थी मगर मौजूदा समय में इनकी मांग काफी कम हो गई है।
ऐसे बनती है मूर्ति
मूर्ति बनाने की प्रक्रिया बहुत जटिल होती है। मूर्ति बनाने में एक खास तरह की मिटटी का प्रयोग किया जाता है जिसे काली मिट्टी कहते है। इस मिट्टी को धूप में सूखा कर, उसको महीन कर छाना जाता है। इसके बाद उसको भिगोया जाता ह,ै गीला करके उसको फिर से छाना जाता है ताकि कोई कंक्कड़ उसमें न रह जाये। इसके बाद उसको धूप में हल्का सूखाया जाता है। सांचे में ढाल कर मिटटी में तपाया जाता है तब जाकर मूर्ति तैयार होती है। कभी कभी मिटटी में कच्चा रह जाने के कारण या ज्यादा तप जाने के कारण मूर्तियां टूट भी जाती हैं। इससे नुकसान भी सहना पड़ता है।
मूर्ति बनाने में प्रयोग होने वाली काली मिटटी देहात क्षेत्र से मंगवाई जाती है। इसमें मलिहाबाद, दुबग्गा, बिजनौर आदि जगह प्रमुख है। इसे मंगवाने में •ाी खर्च आता है जिससे काफी पैसा इसमें •ाी खर्च होता है।
कई हुनर हुए विलुप्त
मूर्तिकला बाजारीकरण की भेट चढ़ गई है। ऐसे में कई हुनर भी विलुप्त हो गये हैं जैसे इंसाफ का तराजू, लाफिंग बुद्धा, स्टैचू, मिटटी के लैंप आदि चीजों का बनना बंद हो गया है। ऐसे में बस अब देवी देवताओं की ही मूर्तियां बनाते हैं।
वर्जन मूर्तिकार
1. मूल रुप से सिधौली निवासी सुल्ताना पंद्रह साल से काम कर रहे हैं। उनके अनुसार, लागत और मेहनत के अनुसार पैसा नहीं मिल रहा है। शुरु में तो बिक्री अच्छी होती थी मगर वर्तमान समय में मूर्तियों में ज्यादा मुनाफा नहीं मिल पाता है। इस कारण पत्थर को तराश कर उनको बनाना बंद कर दिया है। अब चित्रकूट से बनी हुई मूर्ति लाते हैं और उनमें रंग भर देते है। साल भी में मूर्ति से मात्र दो तीन हजार रुपये ही बचते हैं।
2...सहादतगंज में रहने वाले कैलाश प्रजापति ने बताया कि मूर्तिकला से उनका पुराना रिश्ता है। यह उनका पुश्तैनी काम है। उनके दादा सुखाराम ने इसकी शुरुआत की थी तब से वो ये काम कर रहे हंै। उन्होंने बताया कि मूर्तिकारों की दशा बहुत खराब है। पिछले चालीस सालों से वह ये काम कर रहे हैं मगर अब इसमें पहले की तरह मुनाफा नहीं मिलता। बाजारीकरण से बहुत नुकसान हुआ है। उन्होंने बताया कि जो मूर्ति हम बनाते हंै, उनकी लागत से •ाी कम की मूर्ति बाजार में आ जाती है। ऐसे में हमारी मूर्ति को कौन लेगा। महाजनों से पैसा उधार लेकर काम करते है मगर बिक्री न हो पाने की दशा में भी महाजन को ब्याज समेत रुपये लौटाने होते है। कभी कभी तो खाने के भी लाले पड़ जाते हैं।
3...सहादतगंज निवासी आशीष का भी पुश्तैनी काम है। उनके दादा पर दादा के जमाने से ये काम होता आ रहा है। कभी प्रकाश कला केंद्र का नाम हुआ करता था, उनकी बनाई मूर्तियों की डिमांड बाहरी प्रदेशों में भी रहती थी मगर अब बाजारीकरण के कारण उनकी हालत बहुत खराब है। आशीष के अनुसार, कभी हमारे यहां 30 से 40 लोग काम करते थे मगर आज मात्र 10 लोग ही बचे हैं। त्यौहारों पर ही मूर्तियों की डिमांड और बिक्री ज्यादा होती है।


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