Tuesday, 19 May 2015

फीकी हो रही ज़रदोज़ी की चमक


इन्टरवल एक्सप्रेस
लखनऊ। अपने हाथों के हुनर से साड़ी और सूट में खूबसूरत डिजाइन बनाकर मार्केट में अपने एक अलग पहचान बनाने वाले जरदोजी के कारीगर मौजूदा समय में गरीबी और काम की कमी से जूझ रहे है। ऐसे में इन जरदोजी कारीगरों पर महगाई के साथ काम की कमी भी  खूब भारी पड़  रही है। राजधानी में जरदोजी के काम का बोलबाला था लेकिन वर्तमान समय में कम्प्यूटराइज्ड काम ज्यादा होने की वजह से इन हाथ के कारीगरों को पेट भरने के भी  लाले पड़ गये है। काम में फायदा न होते देख कई कारीगरों ने अपना धंधा ही बदल दिया है। मौजूदा समय में वही लोग जरदोजी का काम कर रहे है जिनके यहां पुश्तैनी कार्य होता रहा है या उनके हाथ में इस हुनर के अलावा कोई और हुनर ही नहीं है। इस काम में पैसा भी  न के बराबर है। आठ घंटे के काम में मात्र 80 रुपये ही मिलते है। लगातार कई घंटो तक बैठकर काम करने के कारण बीमारियां भी  ज्यादा होती है।

जरदोजी का इतिहास
जरदोजी एक उर्दू व फारसी शब्द है  इस जरदोजी भी  एक तरह की कढ़ाई होती है भारत में प्राचीन काल से ही इस कला की एक अपनी अलग पहचान थी। मुगल शासक अकबर के समय इस कला को बहुत समृद्धि मिली लेकिन उसके बाद औद्योगिकरण के चलते इस कला का पतन शुरु हो गया लेकिन बीसवी सदी में इस कला ने फिर से जोर पकड़ना शुरु कर दिया। राजधानी में आज से बीस साल पहले जरदोजी के काम का बोलबाला था। जरदोजी का काम एक विशेष बिरादरी के द्वारा किया जाता था इस काम में फायदा और मुनाफा ज्यादा होने के कारण कई लोगो ने •ाी इस काम को करना शुरु कर दिया। जिसके चलते प्रतिस्पर्धा का दौर भी  शुरु हो गया। जहां पहले दुकानदार कारीगरों को कपड़ा और डिजाइन देकर अपना पैसा लगवाकर काम करवाते थे उनको कई समृद्धि लोगों  ने अपनी लागत में काम बनवा के देने का काम शुरु कर दिया जिससे दुकानदारों को बिना पैसे लगाये ही माल मिलने लगा और जिसको बेचकर पैसे देने होते थे जिससे दुकानदारों ने खुद काम करवाना बंद कर दिया और ठेकेदारों से काम लेने लगे। राजधानी के अलावा दिल्ली, पंजाब और हैदराबाद में भी  इस काम की मांग ज्यादा है।



जरदोजी के प्रकार

जरदोजी कला में कई तरह के काम किये जाते है जैसे रेशम में काम, करदाना मोती, कोरा नकसी सादी कसब और अन्य तरह के काम किये जाते है। सादे कपड़े पर मोती रेशम के धागे से डिजाइन बनाया जाता है। इसके अलावा वक्त के साथ चिकन पर भी  जरदोजी का काम होने लगे है। चिकन पर जरदोजी का काम तो विश्व प्रसिद्ध है। बनारसी साड़ियों पर भी  जरदोजी के काम की मांग अब ज्यादा बढ़ गई है। सन् 2000 में रेशम का काम ज्यादा होता था मगर वर्तमान समय में चॉदला का काम ज्यादा चल रहा है।
नुकसान ज्यादा फायदा कम
दिहाड़ी के काम में करने वालो जरदोजी कारीगरों को घंटो के हिसाब से काम करना पड़ता है आठ घंटे में नफरी के हिसाब से 80 रुपये मिलते है, पंद्रह घंटे काम करने पर 150 रुपये ही मिलते है। इसके अलावा साड़ी पर काम करने के दौरान यदि व गंदी या कट फट जाती है तो उसका हर्जाना भी  कारीगर से ही लिया जाता है। जरदोजी का काम एक साड़ी पर 1000 रुपये से लेकर पांच लाख रुपये तक का काम होता है। इस काम को करने में रिस्क ज्यादा होता है। यदि एक भी  साड़ी रिजेक्ट हो जाती है तो मेहनत के साथ उसकी लागत भी  कारीगरों को अपनी जेब से देनी पड़ती है। एक साड़ी को बनाने में कम से कम तीन दिन लगते है यदि एक साड़ी  की कीमत एक हजार है तो उसको बनवाने में 600 रुपये की लागत आती है। ऐसे में 400 रुपये की ही बचत हो पाती है।

मशीनीकरण से हुआ नुकसान
कम्प्यूटराइज्ड जमाने में सबसे ज्यादा नुकसान जो हुआ है वो जरदोजी के कारीगरों का हुआ है। जिस साड़ी को पांच लोग मिलकर तीन दिन में बनाते थे उसी साड़ी को मशीन के द्वारा सात से आठ  घंटे में बना दिया जाता है और इसमें लागत भी  कम आती है। जिसके कारण मार्केट में इनके हाथ से बनी साड़ियों के अपेक्षा मशीन के द्वारा बनी हुई साड़ी के कम दाम की वजह से लोग ज्यादा पंसद करते है।

कारीगरो के वर्जन
मोहम्मद आजम 25 साल से जरदोजी का काम कर रहे है इनके परिवार में आठ लोग है जिनके भरण पोषण की जिम्मेदारी इन्हीं के कंधों पर है। इनका ये पुश्तैनी काम है इस काम में उनके बच्चे और बीबी भी  साथ देती है। आजम के मुताबिक सुबह से लेकर देर रात तक जब सब लोग काम करते है तब जाकर तीन सौ रुपये कमा पाते है। इस कारण वो अपने बच्चों को स्कूल भी  नहीं भेज पाते है। उनके अनुसार यदि बच्चों को स्कूल भेजेंगे तो यहां काम कौन करेगा क्योकि अकेले मैं इतना नहीं कमा पाता कि परिवार का पेट भी  भरे और बच्चों को पढ़ाये •ाी।

2:::::शाकिर जो बचपन से यहीं काम कर रहे है उन्होने बताया कि इस काम की वजह से वो पढ़ाई भी  नहीं कर पाये। उन्होंने बताया कि पहले के समय में काम का कंपीटिशन कम था मगर अब कंपीटिशन ज्यादा हो गया है। आज वो दिन रात मेहनत करके भी  मात्र 150 रुपये ही कमा पाते है। इसके साथ ही वो परचून के दुकान भी  रखे है। उनका कहना है कि अब वो कोई और काम कर भी  नहीं सकते है क्योकि जरदोजी के अलावा उनको कुछ आता ही नहीं है। उनके साथ के कई लोगों ने जरदोजी के काम के बुरे हाल को देख कर अपना धंधा ही बदल दिया।

3::::: मोहम्मद अंसार के मुताबिक जरदोजी कारीगरों की बदहाल स्थिति का मुख्य कारण बड़े बड़े कारीगरों का दुकानदार को उधार माल देना है जिससे दुकानदार अब अपना पैसा लगाकर काम करवाना ही बंद कर दिया। जिससे सबसे ज्यादा नुकसान कारीगरों का हुआ है ऐसे में ठेकेदार उनसे अपने मन मुताबिक काम करवा रहे है और मेहनत के हिसाब से पैसा भी  नहीं देते। उनके बनाये सूट और साड़ी तो मार्केट में चालीस हजार रुपये तक बिकती है मगर कारीगरों को बस चार हजार रुपये ही मिलते है। दिन रात जीतोड़ मेहनत करने के बाद भी  उनको परिवार को पालना मुश्किल हो रहा है ऐसे में वो इन काम को छोड़कर दूसरे कामों की तरफ भाग  रहे है।

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