इन्टरवल एक्सप्रेस लखनऊ।
कश्ती हर तूफां से निकल सकती है
बिगड़ी हुई बात फिर बन सकती है
हिम्मत रख हौसला न हार
किस्मत किसी रोज बदल सकती है।
शायद, ये पंक्तियां अरुणिमा सिन्हा के लिये ही लिखी गई हैं। एक पैर के सहारे दुनिया की सबसे ऊंची चोटी मांउट एवरेस्ट तक पहुंचने वाली अरुणिमा सिन्हा अपने जुनून को एवरेस्ट से •ाी बड़ा मानती हैं। युवाओं की प्रेरणास्त्रोत बनकर उभरी अरुणिमा सिन्हा को देखकर ऐसा लगता है कि अगर हिम्मत और जूनून हो तो कागज की कश्ती भी समुंदर में झोंके खाकर साहिल पर पहुंच सकती है। यह उनका जुनून ही है जिसने बांया पैर न रहते हुए भी उन्हें एवरेस्ट की ऊंचाई छूने की कामयाबी दिलाई। पेश है उनकी बहादुरी और कामयाबी की दास्तान।
मोहम्मद फाजिल
जिस देश में बेटियों को बोझ समझकर उनका त्याग कर दिया जाता है, बेटे की चाहत में जहां गर्भ में ही बेटियों की बलि दे दी जाती है। महज इसलिए क्योेंकि वह बड़ी होकर धरती समाज और परिवार पर बोझ बनेंगी। ऐसे में जब कोई बेटी कुछ बड़ी उपलब्धि हाासिल कर लेती है तो न सिर्फ उसके परिवार को बल्कि पूरे देश और दुनिया को भी उस पर गर्व महसूस होता है। ऐसी बहादुर बेटियां ही सिर्फ उन निर्दयी और बेरहम लोगों को बता सकतीं हैं कि बेटियों के कारण सिर सिर्फ झुकता नहीं बल्कि गर्व से ऊपर भी उठता हैं।
ऐसी ही एक भारतीय बेटी है जिसने सिर्फ अपना ही नहीं परिवार व देश का नाम दुनिया भर के सामने फक्र से ऊंचा कर दिया है, साथ ही ये भी बताया कि शारीरिक कमजोरी और विकलांगता लक्ष्य को हासिल करने में रुकावट नहीं बन सकती। एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने शहर आई अरुणिमा सिन्हा ने हमसे काफी कुछ शेयर किया।
अपने बारे में कुछ बताइये?
मैं मूल रुप से अम्बेडकर नगर की रहने वाली हूं। मैं वालीबॉल और फुटबाल की काफी अच्छी खिलाड़ी थी। वालीबॉल में तो मैंने राष्ट्रीय स्तर पर टीम का प्रतिनिधित्व भी किया है। हादसे के बाद खेल न खेल पाने की कसक थी मगर मैंने उसको बदलकर पर्वतारोही बनने का फैसला किया। आज अपनी मेहनत और घरवालों के हौसले के सहारे मैं इस मुकाम पर पहुंच पाई हूं। दुर्घटना के समय मैं पदमावती एक्सप्रेस से दिल्ली जा रही थी। बरेली के पास कुछ अज्ञात बदमाशों ने मेरी चेन छीनने की कोशिश की जब मैंने विरोध किया तो मुझे ट्रेन से नीचे फेंक दिया जिससे मेरा बांया पैर कट गया। लगभग सात घण्टे तक बेहोशी की हालत में तड़पती रहीं। सुबह टहलने निकले कुछ लोगों ने जब मुझे पटरी के किनारे बेहोशी की हालत में पाया तो तुरंत अस्पताल पहुंचाया। एम्स में इलाज के दौरान मेरा बाया पैर काट दिया गया। इन सब मुसीबतों के बीच मेरे परिवार और सहयोगियों ने मेरा बहुत साथ दिया। बछेंद्री पाल ने मेरे सपने को साकार करने और उसके लिए हिम्मत देने का काम किया।
एवरेस्ट फतेह करने का ख्याल कैसे आया?
ट्रेन हादसे में मैने अपने पैर गंवा दिये थे। अस्पताल में बिस्तर पर बस पड़ी रहती थी। परिवार के सदस्य, मेरे अपने मुझे देखकर पूरा दिन रोते, मुझे सहानुभूति की भावना से अबला व बेचारी कहकर सम्बोधित करते। मगर ये मुझे मंजूर नहीं था मैने मन ही मन कुछ अलग करने की ठानी। हादसे के बाद खेल न खेल पाने की कसक थी मगर मैंने उसको बदलकर पर्वतारोही बनने का फैसला किया। उसके बाद मैं अपने जीजा और भाई के साथ जमशेदपुर पहुंच गई। वहां मैने एवरेस्ट फतेह कर चुकी बछेंद्री पाल से मुलाकात की। उस वक्त मेरा एक पैर कटा हुआ था और दूसरे पैर में स्टील के टांके लगे हुए थे। मैने उनसे कहा कि मैं पर्वतारोही बनना चाहती हूं। यह सुनकर उनकी आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने कहा कि तुम तो पहले ही एवरेस्ट फतेह कर चुकी हो, अब केवल दुनिया के लोगों के लिए फतेह करना है। उनकी इस बात से मेरा हौसला और बढ़ गया। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद 21 मई को माउंट एवरेस्ट पर पहुंच गई। वहां पहुंचने के बाद मेरा दिल कर रहा था कि मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर चिल्लाकर लोगों को बता दूं कि मैं कोई अबला या कमजोर नारी नहीं हूं।
आपको इसकी प्रेरणा कहां से मिली?
मैनें अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बनाया। हादसे के बाद मेरे ऊपर कई तरह के आरोप लगे जैसे बिना टिकट यात्रा कर रही थी, तो टीटी के आने पर कूद गई। लोगों ने तरह-तरह के आरोप लगाये। आज मैं उन्हीं लोगों को धन्यवाद देना चाहती हूं क्योंकि उनकी ही वजह से मेरे अंदर हिम्मत आई, कुछ कर गुजरने का जज्बा आया। मेरे आलोचक ही मेरे सबसे बड़े शुभचिंतक है।
आपका कोई खास सपना जिसे साकार होते देखना चाहती हैं?
मेरा सपना एक इन्टरनेशनल स्पोर्ट एकेडमी बनाने का है। इसके लिए मैनेें उन्नाव में दस बीघा जमीन लेने का मन बनाया है । इस एकेडमी का नाम चंद्रशेखर आजाद रखा है। यहां विकलांग बच्चों को शिक्षा के साथ, खेल भी सिखाया जायेगा। इसके अलावा डीआरडीओ से भी बात हो रही है, जिससे विकलांग बच्चों के लिए एक रिसर्च सेंटर खोला जायेगा जिसमें कम पैसे में अच्छा और कृत्रिम पैर आसानी से उपलब्ध हो सके। मेरा कृत्रिम पैर विदेश का है। अब मैं चाहती हूं कि यहां के लोगों को अच्छे कृत्रिम पैर देश में ही सस्ते दामों में मिल सके। ये सारा काम मैं खुद अपने पैसे से करवा रही हूं। मुझे जो भी राशि बतौर पुरस्कार मिली है, उसी राशि से एकेडमी के लिए जमीन खरीदी है। सरकार की तरफ से अभी तक कोई आर्थिक मदद नहीं मिली हैं।
क्या आपके पास भी फिल्मों के आॅफर आए हैं?
जी हां, मेरे ऊपर फिल्म बनाने को लेकर हॉलीवुड के एक डायरेक्टर से बात चल रही है। मगर मैं उनको सिर्फ इंग्लिश फिल्म के राइट्स दूंगी। हिंदी फिल्म के राइट्स के लिए भी बॉलीवुड के जान-माने डायरेक्टर से बातें चल रही है। इसके अलावा उन्होंने बताया कि मेरे ऊपर किताब भी लिखी जा चुकी है जिसका नाम 'बोर्न आगेन आन द माउंटेन' हैं। इसके अलावा हिंदी और कन्नड़ में भी इसके प्रकाशन की तैयारी है।
पद्म श्री पाकर कैसा महसूस हुआ?
देश का इतना बड़ा सम्मान मिलने से जो खुशी मिली है, उसको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। मेरे लिए ये सम्मान नहीं जिम्मेदारी है। इस सम्मान का मान रखना मेरा पहला कर्तव्य है।
युवाओं के लिए संदेश
मैं युवाओं को यह संदेश देना चाहती हूं कि वो सबसे पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करें और उसको पाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करें। किस्मत के सहारे बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। किस्मत भी बहादुर लोगों का साथ देती है।
#पद्मश्री #इंटरव्यू #अरुणिमासिन्हा #एवरेस्ट #फ़तेह
कश्ती हर तूफां से निकल सकती है
बिगड़ी हुई बात फिर बन सकती है
हिम्मत रख हौसला न हार
किस्मत किसी रोज बदल सकती है।
शायद, ये पंक्तियां अरुणिमा सिन्हा के लिये ही लिखी गई हैं। एक पैर के सहारे दुनिया की सबसे ऊंची चोटी मांउट एवरेस्ट तक पहुंचने वाली अरुणिमा सिन्हा अपने जुनून को एवरेस्ट से •ाी बड़ा मानती हैं। युवाओं की प्रेरणास्त्रोत बनकर उभरी अरुणिमा सिन्हा को देखकर ऐसा लगता है कि अगर हिम्मत और जूनून हो तो कागज की कश्ती भी समुंदर में झोंके खाकर साहिल पर पहुंच सकती है। यह उनका जुनून ही है जिसने बांया पैर न रहते हुए भी उन्हें एवरेस्ट की ऊंचाई छूने की कामयाबी दिलाई। पेश है उनकी बहादुरी और कामयाबी की दास्तान।
मोहम्मद फाजिल
जिस देश में बेटियों को बोझ समझकर उनका त्याग कर दिया जाता है, बेटे की चाहत में जहां गर्भ में ही बेटियों की बलि दे दी जाती है। महज इसलिए क्योेंकि वह बड़ी होकर धरती समाज और परिवार पर बोझ बनेंगी। ऐसे में जब कोई बेटी कुछ बड़ी उपलब्धि हाासिल कर लेती है तो न सिर्फ उसके परिवार को बल्कि पूरे देश और दुनिया को भी उस पर गर्व महसूस होता है। ऐसी बहादुर बेटियां ही सिर्फ उन निर्दयी और बेरहम लोगों को बता सकतीं हैं कि बेटियों के कारण सिर सिर्फ झुकता नहीं बल्कि गर्व से ऊपर भी उठता हैं।
ऐसी ही एक भारतीय बेटी है जिसने सिर्फ अपना ही नहीं परिवार व देश का नाम दुनिया भर के सामने फक्र से ऊंचा कर दिया है, साथ ही ये भी बताया कि शारीरिक कमजोरी और विकलांगता लक्ष्य को हासिल करने में रुकावट नहीं बन सकती। एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने शहर आई अरुणिमा सिन्हा ने हमसे काफी कुछ शेयर किया।
अपने बारे में कुछ बताइये?
मैं मूल रुप से अम्बेडकर नगर की रहने वाली हूं। मैं वालीबॉल और फुटबाल की काफी अच्छी खिलाड़ी थी। वालीबॉल में तो मैंने राष्ट्रीय स्तर पर टीम का प्रतिनिधित्व भी किया है। हादसे के बाद खेल न खेल पाने की कसक थी मगर मैंने उसको बदलकर पर्वतारोही बनने का फैसला किया। आज अपनी मेहनत और घरवालों के हौसले के सहारे मैं इस मुकाम पर पहुंच पाई हूं। दुर्घटना के समय मैं पदमावती एक्सप्रेस से दिल्ली जा रही थी। बरेली के पास कुछ अज्ञात बदमाशों ने मेरी चेन छीनने की कोशिश की जब मैंने विरोध किया तो मुझे ट्रेन से नीचे फेंक दिया जिससे मेरा बांया पैर कट गया। लगभग सात घण्टे तक बेहोशी की हालत में तड़पती रहीं। सुबह टहलने निकले कुछ लोगों ने जब मुझे पटरी के किनारे बेहोशी की हालत में पाया तो तुरंत अस्पताल पहुंचाया। एम्स में इलाज के दौरान मेरा बाया पैर काट दिया गया। इन सब मुसीबतों के बीच मेरे परिवार और सहयोगियों ने मेरा बहुत साथ दिया। बछेंद्री पाल ने मेरे सपने को साकार करने और उसके लिए हिम्मत देने का काम किया।
एवरेस्ट फतेह करने का ख्याल कैसे आया?
ट्रेन हादसे में मैने अपने पैर गंवा दिये थे। अस्पताल में बिस्तर पर बस पड़ी रहती थी। परिवार के सदस्य, मेरे अपने मुझे देखकर पूरा दिन रोते, मुझे सहानुभूति की भावना से अबला व बेचारी कहकर सम्बोधित करते। मगर ये मुझे मंजूर नहीं था मैने मन ही मन कुछ अलग करने की ठानी। हादसे के बाद खेल न खेल पाने की कसक थी मगर मैंने उसको बदलकर पर्वतारोही बनने का फैसला किया। उसके बाद मैं अपने जीजा और भाई के साथ जमशेदपुर पहुंच गई। वहां मैने एवरेस्ट फतेह कर चुकी बछेंद्री पाल से मुलाकात की। उस वक्त मेरा एक पैर कटा हुआ था और दूसरे पैर में स्टील के टांके लगे हुए थे। मैने उनसे कहा कि मैं पर्वतारोही बनना चाहती हूं। यह सुनकर उनकी आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने कहा कि तुम तो पहले ही एवरेस्ट फतेह कर चुकी हो, अब केवल दुनिया के लोगों के लिए फतेह करना है। उनकी इस बात से मेरा हौसला और बढ़ गया। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद 21 मई को माउंट एवरेस्ट पर पहुंच गई। वहां पहुंचने के बाद मेरा दिल कर रहा था कि मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर चिल्लाकर लोगों को बता दूं कि मैं कोई अबला या कमजोर नारी नहीं हूं।
आपको इसकी प्रेरणा कहां से मिली?
मैनें अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बनाया। हादसे के बाद मेरे ऊपर कई तरह के आरोप लगे जैसे बिना टिकट यात्रा कर रही थी, तो टीटी के आने पर कूद गई। लोगों ने तरह-तरह के आरोप लगाये। आज मैं उन्हीं लोगों को धन्यवाद देना चाहती हूं क्योंकि उनकी ही वजह से मेरे अंदर हिम्मत आई, कुछ कर गुजरने का जज्बा आया। मेरे आलोचक ही मेरे सबसे बड़े शुभचिंतक है।
आपका कोई खास सपना जिसे साकार होते देखना चाहती हैं?
मेरा सपना एक इन्टरनेशनल स्पोर्ट एकेडमी बनाने का है। इसके लिए मैनेें उन्नाव में दस बीघा जमीन लेने का मन बनाया है । इस एकेडमी का नाम चंद्रशेखर आजाद रखा है। यहां विकलांग बच्चों को शिक्षा के साथ, खेल भी सिखाया जायेगा। इसके अलावा डीआरडीओ से भी बात हो रही है, जिससे विकलांग बच्चों के लिए एक रिसर्च सेंटर खोला जायेगा जिसमें कम पैसे में अच्छा और कृत्रिम पैर आसानी से उपलब्ध हो सके। मेरा कृत्रिम पैर विदेश का है। अब मैं चाहती हूं कि यहां के लोगों को अच्छे कृत्रिम पैर देश में ही सस्ते दामों में मिल सके। ये सारा काम मैं खुद अपने पैसे से करवा रही हूं। मुझे जो भी राशि बतौर पुरस्कार मिली है, उसी राशि से एकेडमी के लिए जमीन खरीदी है। सरकार की तरफ से अभी तक कोई आर्थिक मदद नहीं मिली हैं।
क्या आपके पास भी फिल्मों के आॅफर आए हैं?
जी हां, मेरे ऊपर फिल्म बनाने को लेकर हॉलीवुड के एक डायरेक्टर से बात चल रही है। मगर मैं उनको सिर्फ इंग्लिश फिल्म के राइट्स दूंगी। हिंदी फिल्म के राइट्स के लिए भी बॉलीवुड के जान-माने डायरेक्टर से बातें चल रही है। इसके अलावा उन्होंने बताया कि मेरे ऊपर किताब भी लिखी जा चुकी है जिसका नाम 'बोर्न आगेन आन द माउंटेन' हैं। इसके अलावा हिंदी और कन्नड़ में भी इसके प्रकाशन की तैयारी है।
पद्म श्री पाकर कैसा महसूस हुआ?
देश का इतना बड़ा सम्मान मिलने से जो खुशी मिली है, उसको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। मेरे लिए ये सम्मान नहीं जिम्मेदारी है। इस सम्मान का मान रखना मेरा पहला कर्तव्य है।
युवाओं के लिए संदेश
मैं युवाओं को यह संदेश देना चाहती हूं कि वो सबसे पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करें और उसको पाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करें। किस्मत के सहारे बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। किस्मत भी बहादुर लोगों का साथ देती है।
#पद्मश्री #इंटरव्यू #अरुणिमासिन्हा #एवरेस्ट #फ़तेह

No comments:
Post a Comment