इन्टरवल एक्सप्रेस
लखनऊ। भाजपा के पतन से लेकर उत्थान तक उत्तर प्रदेश का बहुत बड़ा योगदान रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी के नेतृत्व में भजपा ने 55 सीटे जीत कर इतिहास रच दिया था मगर फिर पार्टी के अंदर मची खीचतान ने पार्टी को समेट कर मात्र 10 सीटो पर पहुंचा दिया। पार्टी एक बार फिर से प्रदेश में अपने पतन से उत्थान की ओर जाती दिखाई दे रही है। इसबार पार्टी अलाकामान पिछल्ली बार की गलतियों को नहीं दोहराना चाहते है इसलिए प्रदेश में 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी बिना किसी मुखौटे के चुनाव में उतरेगी। सूत्रों के अनुसार पार्टी विरोधी अंदरुनी गतिविधियों को रोकने के लिए आलाकमान ने फैसला किया है कि पार्टी बिना किसी मुख्यमंत्री के चेहरे के चुनाव लडने की तैयारी में है।
गुटबाजी के चलते नहीं होगा मुख्यमंत्री उम्मीदवार
भाजपा लगभग दो दशक के ऊपर के समय के बाद प्रदेश में पार्टी का रुतबा बढा है। 16वी लोकसभ में भाजपा ने जिस मोदी चेहरे के दम पर चुनाव लड़ कर अ•ाूतपूर्व चुनाव जीता था वो ही चेहरा इस बार के प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी होगा। पार्टी के अंदर मची उठा पटक और खीचतान के चलते पार्टी के चिंतक इस बार पार्टी को बिना चेहरे के साथ सीएम इन वेटिंग की तर्ज पर चुनाव लड़ने के मूड़ में है। प्रदेश में भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल अपने ही लोगों को समझाना ओर गुटबाजी से दूर रखकर चुनाव लड़ना है। प्रदेश की भाजपा कमेटी के अंदर हमेशा ही खीचतान और गुटवाजी चलती रहती थी जिसके कारण पार्टी को नुकसान उठाना पड़ता है।
पार्टी के नेताओं ने शुरु की मुहीम
प्रदेश भाजपा के कई बडे नेताओं और उनके समर्थकों ने फेसबुक और सोशल मीडिया पर अपने को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताते हुए जंग छेड दी है। इन बड़े नेताओं में प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेई से लेकर योगी आदित्यनाथ, वरुण गांधी, उमा भारती, दिनेश शर्मा, जैसे बड़े नेता शामिल है। इन नेताओं की ये राजनैतिक महत्वाकांक्षा ही पार्टी के अंदर फूट डालजने का काम कर रही है। ये भी एक वजह है कि पार्टी आलाकमान मुख्यमंत्री का चेहरा नही घोषित करना चाहता। यदि किसी एक को भी पार्टी मुख्यमंत्री के तौर पर प्रस्तुत करती है तो ऐसे में पार्टी के अंदर जो भूचाल मचेगा वो पार्टी को पहले की तरह गर्त में लेकर चला जायेगा जैसे अटल बिहारी के चुनाव के बाद हुआ था। उस समय भी भाजपा के प्रदेश नेताओं की आपसी खीचतान का ही नतीजा था पार्टी पतन की ओर अगसर हो गई थी। इस बार अलाकमान हर हाल में प्रदेश चुनाव में अपनी धमक जमाने की कोशिश में लगा है।
ओम मथुर के जरिये लगाम
अगामी विधानसभ चुनाव के लिए प्रदेश प्र•ाारी के तौर पर ओम मथुर को बनाया है। ओम मथुर को प्रदेश प्र•ाारी बनाने के पीछे का मकसद पार्टी के अंदर गुटबाजी को रोकना है। बाहरी व्यक्ति होने के कारण पार्टी में एक दूसरे के विरोधी नेता से वो अलग तौर पर भी जुडे रहेगे जिससे वो पार्टी के अंदर हो रही खीचतान को रोकने में सफल हो सकेगे। ओम मथुर को लाने का मुख्य कारण पार्टी के अंदर विरोध स्वर को दबाने का है यदि पार्टी किसी यही के नेता को प्र•ाारी बनाती तो ये तय था कि विरोध के स्वर बुलंद हो जाते और चुनाव से पहले ही पार्टी को अपने ही लोगों से लड़ना पड़ता ।
कांग्रेस की तर्ज पर भाजपा
कांग्रेस पार्टी का एक नियम रहा है कि वो बिना किसी चेहरे के चुनाव लड़ती है और यदि चुनाव जीत जाती है तो सर्वसम्मति से चुने गये प्रत्शशियों के माध्यम से उन्ही के बीच का नेता चुन लेती है। इस तरह पार्टी में विरोध के आसार काफी कम होते है। भाजपा हमेशा से एक चंहरे के साथ चुनाव लड़ती आई है लोकसभा चुनाव भी उसने मोदी के चेहरे के साथ लड़ा मगर विधानसभा चुनाव में परिस्थितियां अलग होती है।
अपने अंदर हो रहे बुलद विरोध स्वरों की वजह से पार्टी बिना चेहरे के ही प्रदेश में होने वाल ेविधानस•ाा चुनाव में लड़ेगी।
प्रदेश में भाजपा का इतिहास
मौजूदा हालातों पर नजर डाले तो कभी उत्तर प्रदेश की राजनीति में नंबर एक पर रहने वाली भाजपा एक नंबर से चार नंबर पर कैसे पहुँच गई, इसका जवाब किसी भी बड़े भजपा नेता के पास नहीं है। क्योकि इन्ही नेताओं के दम पर ही पार्टी उत्थन से पतन की ओर अग्रसर हुई थी। सामूहिक नेतृत्व के आधार पर चलने वाली •ाारतीय जनता पार्टी कब व्यक्तिवादी और क्षेत्रवादी बन गई, इसका आ•ाास पार्टी नेताओं को तब हुआ जब पार्टी गर्त में जाने लगी। आज •ााजपा की हालत ये है कि जो पार्टियाँ अपने प्रदेश अध्यक्षों का चुनाव कार्यकतार्ओं के सुझाव से करती थी, आज उस पार्टी के अध्यक्ष दिल्ली से मनोनीत होने लगे हैं। •ााजपा का यूपी में एक सुनहरा दौर तब था जब प्रदेश में कल्याण सिंह, कलराज मिश्र, लालजी टंडन, ओम प्रकाश सिंह और राजनाथ सिंह ये पांच प्रमुख नेता हुआ करते थे लेकिन 1999 में कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मुहिम से •ााजपा में जो गुटबाजी शुरू हुई उसने इस सामूहिक नेतृत्व को छिन्न-•िान्न कर दिया। लालकृष्ण आडवाणी के करीबी कल्याण सिंह सीधे अटल बिहारी वाजपेयी से टकराए। इससे पार्टी में अगड़ों और पिछड़ों का सामंजस्य टूट गया। कल्याण सिंह को दोबारा पार्टी में लाया गया।1993 में राम लहर में मुलायम कांशीराम का गठजोड़ •ाी हवा हो गया था। 'जय श्रीराम' का नारा कामयाब रहा। इस गठबंधन को तोड़ने और 'हिन्दू समाज की एकजुटता के लिए •ााजपा ने मायावती को मुख्यमंत्री बनवाया। •ााजपा के पतन में बसपा सुप्रीमो मायावती ने अहम •ाूमिका नि•ााई। मायावती ने •ााजपा से जुड़े ब्राह्मण वोट बैंक में सेंध मारकर •ााजपा के पतन की नई इबारत लिख दी थी। मायावती ने धीरे-धीरे •ााजपा के सवर्ण मतदाताओ को सत्ता में हिस्सेदारी का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। पार्टी के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी बीमार होकर सक्रिय राजनीति से अलग हैं। अब केवल वह •ााजपा मुख्यालय में पोस्टरों और बैनरों पर ही दिखाई देते थे। मई, 2007 में विधानस•ाा चुनाव कल्याण सिंह के नेतृत्व में लड़ा गया,मगर उन चुनावो में बसपा आंधी के सामने स•ाी राजनैतिक पार्टियों ने दम तोड़ दिया। इस बार •ााजपा अगडो ओर पिछडों को लेकर ही चलने की नीयत में है लोकस•ाा 2014 के चुनावों ने •ााजपा में एक बार फिर उम्मीद जगा दी है कि वो प्रदेश की राजनीति में चौथे नंबर से ऊपर उठकर एक नंबर की हैसियत पा सकती है।

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