लखनऊ। पौ फटते ही दुकान पर आना, अपना काम करना और शाम को मालिक की डांट लेकर घर वापस जाना। यह हाल है उन मजबूरों का जो कभी घर की दिक्कतों के चलते, तो कभी घर से भागने के कारण बाल श्रमिक बन जाते हैं। दिनभर की जीतोड मेहनत के बदले मिलता क्या है, चन्द सिक्के, जो पेट की आग बुझाने के लिये नाकाफी ही साबित होते हैं। कहने को तो बाल श्रम कराना अपराध है और अपराध करने की सजा भी मुकरर है, लेकिन इस अपराध के फेर में चन्द लोग ही आ पाते हैं। बाल श्रम कराने के अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने वाले विभाग भी कभी कभार ही अपनी ड्यूटी पूरी करते है। जिसके चलते इस सामाजिक कुरिति पर अंकुश लगता नजर नहीं आता। वहीं राजनेता समय समय पर सब पढ़े, सब बढ़े का नारा तो जरूर देते हैं, जो केवल नारा बनकर ही रह जाता है। बाल श्रमिकों की इसी कड़वी सच्चाई को उजागर करती मोहम्मद फाजिल की विशेष रिपोर्ट
लखनऊ। जिस सिर पर मां का आंचल होना चाहिए उस सिर पर मालिको का हुक्म चलता है, जिन हाथों में किताबें होनी चाहिए थी उन हाथों में झाडू और पोछा है। बचपन की मासूमियत कुछ इस तरह दुकानों और कारखानों में खोती जा रही है। कंधे पर बस्ते का बोझ नहीं, बल्कि जिम्मेदारी का बोझ है। जिस उम्र में बच्चे बेफ्रिक होकर दुनिया से अंजान मिट्टी और खिलौने की आवाज में खोये रहते है उस उम्र में वो खतरनाक कारखानों में काम कर रहे है।
अकेले शहर में हजारों की संख्या में बच्चों का शोषण किया जा रहा है। जिसमें ठेलों, मिठाई की दुकानों, कपड़ो की दुकानों और छोटे मोटे गत्ता और रुई की फैक्ट्ररियां अव्वल है। शासन प्रशासन और समाज के जिम्मेदार अधिकारी इन जगाहों पर काम कर रहे बाल श्रमिकों को रोज अपनी आखों से देखते है, मगर कुछ बोलने के बजाय चुप चाप निकल जाते है। डालीगंज, रकाबगंज,अमीनाबाद, लाटूश रोड़, नाका और नाजा जैसी मार्केटों में बच्चे असानी से काम करते दिख जायेगें।
पूरे विश्व में जितनी बाल श्रमिकों की संख्या है। उसके एक तिहाई बाल श्रमिका अकेले भारत में है। ये एक भयानक सच है कि हमारे देश का भविष्य अब स्कूलों में नहीं, बल्कि दुकानों पर खटने को मजबूर है। लाखों बच्चें वर्तमान समय में जोखिम वाले उद्योगों में काम रहे है। कई क्षेत्रों में तो बच्चों से बंधुवा मजदूर के तौर पर काम लिया जा रहा है।
बाल मजदूरी में लगे बच्चे हमेशा शिक्षा से वंचित ही रहेगें और उनकी प्रतिभाए भी दम तोड़ देगी। अब सवाल यह उठता है कि इस स्थिति का जिम्मेदार कौन सरकार या हम ?
कानून तो है, लेकिन असर नहीं
सरकार भी बाल श्रम को लेकर गंभीर है। बाल श्रम अपराध की श्रेणी में आता है। इस कानून में संशोधन भी किया गया है। इस कानून का उल्लंघन करने वालों की सजा एक वर्ष से बढ़ाकर दो वर्ष और जुर्माने की राशि 20 हजार से बढ़ाकर 50 हजार कर दी गई, जबकि दूसरी बार दोषी पाए जाने पर तीन वर्ष की सजा का प्राविधान है। यह शिक्षा के अधिकार कानून के तहत किया गया है, जिसमें 6-15 वर्ष तक के बच्चे को अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया गया है। कानून बन जाने के बाद 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे किसी कार्यस्थल पर काम नहीं कर पाएंगे। लेकिन कानून बनाने के बाद इसे सख्ती से लागू नहीं किया गया। शासन प्रशासन कार्रवाई के नाम पर साल में एक बार अभियान चलाकर मात्र खानापूर्ति कर रहा है। अकेले राजधानी में हजारों बच्चे चाय की दुकानों से लेकर जोखिम वाले कारखानों में काम रहे हैं। इस बात की जानकारी विभागी अधिकारियों को भी है, लेकिन सब मौन धारण करें है।
बाल मजदूरी के कारण
लाख कोशिशों के बाद भी बाल मजदूरी रुक नहीं रही। आखिर क्यों, इस सवाल का जवाब तलाशने पर गरीबी से सामना होता है। गरीबी के कारण मां बाप बच्चों को स्कूल भेजने के बजाये दुकानों पर काम के लिए भेज देते है ताकि परिवार की आय बढ़ सके। इसके अतिरिक्त जनसंख्या बढ़ोत्तरी और बेरोजगारी भी इसका मुख्य कारण है।
हम भी जिम्मेदार
बाल मजदूरी के लिए हम सरकार को दोष देते नही थकते मगर हकीकत यह है कि इसके लिए हम सभी जिम्मेदार है। अपने बच्चों को तो हम घर का काम करने से भी रोकते हैं, मगर दूसरों के बच्चों से अपने घर के काम कराने में नहीं हिचकते। देखा जाये तो बाल श्रम एक सामाजिक कुरीति है, जिसे हर कोई जाने अनजाने बढ़ावा दे रहा है।
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2001 की जनगणना के आकड़ों के अनुसार 25.2 करोड़ कुल बच्चों की आबादी की तुलना में, 5-14 वर्ष आयु समूह के 1.26 करोड़ बाल श्रमिक है। इनमें से लगभग 12 लाख बच्चे ऐसे खतरनाक व्यवसायों में काम कर रहे हैं, जो बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम के अंतर्गत आते है। हालांकि 2004-05 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, काम करने वाले बच्चों की संख्या 90.75 लाख होने का अनुमान है।
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बाल श्रम के खिलाफ कानून
बाल श्रम कानून के तहत 14 साल के कम उम्र का कोई भी बच्चा किसी फैक्ट्ररी या खदान में काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया जायेगा और न ही किसी अन्य खतरनाक नियोजन में नियुक्त किया जायेगा (धारा 24)।
बाद में इस बाल श्रम (निषेध व नियमन) कानून 1986 में संशोधन हुआ जिसमें बताया गया कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को 13 पेशा और 57 प्रक्रियाओं में, जिन्हें बच्चों के जीवन और स्वास्थ्य के लिए अहितकर माना गया है। उसमें नौकरी देना अपराध की श्रेणी में आ गया।
फैक्टरी कानून 1948 - यह कानून 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के नियोजन को निषिद्ध करता है। 15 से 18 वर्ष तक के किशोर किसी फैक्ट्ररी में, तभी नियुक्त किये जा सकते हैं, जब उनके पास किसी अधिकृत चिकित्सक का फिटनेस प्रमाण पत्र हो। इस कानून में 14 से 18 वर्ष तक के बच्चों के लिए हर दिन साढ़े चार घंटे की कार्यावधि तय की गयी है और रात में उनके काम करने पर प्रतिबंध लगाया गया है।
•ाारत में बाल श्रम के खिलाफ कार्रवाई में 1996 में उच्चतम न्यायालय के उस फैसले से आया, जिसमें संघीय और राज्य सरकारों को खतरनाक प्रक्रियाओं और पेशो में काम करने वाले बच्चों की पहचान करने, उन्हें काम से हटाने और उन्हें गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने का निर्देश दिया गया था। न्यायालय ने यह आदेश भी दिया था कि एक बाल श्रम पुनर्वास सह कल्याण कोष की स्थापना की जाये, जिसमें बाल श्रम कानून का उल्लंघन करने वाले नियोक्ताओं के अंशदान का उपयोग हो।
वर्जन -
हम लोग सर्वे करवाते है उसके आधार पर जो बच्चे दुकानो और कारखानों में काम करते हुए पाये जाते है उनको रिहा करवाया जाता है। इसके अलावा बच्चों से काम करवाने वाले मालिकों के खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई करवाते है। लोगों के बताने और सर्वे में बाल मजदूरी कर रहे बच्चों को छुड़वाने में कठिनाई होने पर पुलिस की मदद भी लेते है .......डॉ.अंशुमानी शर्मा चाइल्ड लाइन कमेटी
..... जब इस मामले से श्रम आयुक्त शालिनी प्रसाद से बात करने की कोशिश की गई, तो उनके पीआरओ ने फोन उठा कर कहा कि मैडम मीटिंग में व्यस्त है बाद में बात करना। फिर जब दोबारा से फोन किया गया, तो मैडम का फोन उठा ही नहीं।






