Wednesday, 25 February 2015

मासूम बचपन का शोषण




लखनऊ। पौ फटते ही दुकान पर आना, अपना काम करना और शाम को मालिक की डांट लेकर घर वापस जाना। यह हाल है उन मजबूरों का जो कभी  घर की दिक्कतों के चलते, तो कभी घर से भागने  के कारण बाल श्रमिक बन जाते हैं। दिनभर  की जीतोड मेहनत के बदले मिलता क्या है, चन्द सिक्के, जो पेट की आग बुझाने के लिये नाकाफी ही साबित होते हैं। कहने को तो बाल श्रम कराना अपराध है और अपराध करने की सजा भी मुकरर है, लेकिन इस अपराध के फेर में चन्द लोग ही आ पाते हैं। बाल श्रम कराने के अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने वाले विभाग भी कभी कभार  ही अपनी ड्यूटी पूरी करते है। जिसके चलते इस सामाजिक कुरिति पर अंकुश लगता नजर नहीं आता। वहीं राजनेता समय समय पर सब पढ़े, सब बढ़े का नारा तो जरूर देते हैं, जो केवल नारा बनकर ही रह जाता है। बाल श्रमिकों की इसी कड़वी सच्चाई को उजागर करती मोहम्मद फाजिल की विशेष रिपोर्ट

लखनऊ। जिस सिर पर मां का आंचल होना चाहिए उस सिर पर मालिको का हुक्म चलता है, जिन हाथों में किताबें होनी चाहिए थी उन हाथों में झाडू और पोछा है। बचपन की मासूमियत कुछ इस तरह दुकानों और कारखानों में खोती जा रही है। कंधे पर बस्ते का बोझ नहीं, बल्कि जिम्मेदारी का बोझ है। जिस उम्र में बच्चे बेफ्रिक होकर दुनिया से अंजान मिट्टी और खिलौने की आवाज में खोये रहते है उस उम्र में वो खतरनाक कारखानों में काम कर रहे है।
अकेले शहर में हजारों की संख्या में बच्चों का शोषण किया जा रहा है। जिसमें ठेलों, मिठाई की दुकानों, कपड़ो की दुकानों और छोटे मोटे गत्ता और रुई की फैक्ट्ररियां अव्वल है। शासन प्रशासन और समाज के जिम्मेदार अधिकारी इन जगाहों पर काम कर रहे बाल श्रमिकों को रोज अपनी आखों से देखते है, मगर कुछ बोलने के बजाय चुप चाप निकल जाते है। डालीगंज, रकाबगंज,अमीनाबाद, लाटूश रोड़, नाका और नाजा जैसी मार्केटों में बच्चे असानी से काम करते दिख जायेगें।
पूरे विश्व में जितनी बाल श्रमिकों की संख्या है। उसके एक तिहाई बाल श्रमिका अकेले भारत  में है। ये एक भयानक सच है कि हमारे देश का भविष्य अब स्कूलों में नहीं, बल्कि दुकानों पर खटने को मजबूर है। लाखों बच्चें वर्तमान समय में जोखिम वाले उद्योगों में काम रहे है। कई क्षेत्रों में तो बच्चों से बंधुवा मजदूर के तौर पर काम लिया जा रहा है।
बाल मजदूरी में लगे बच्चे हमेशा शिक्षा से वंचित ही रहेगें और उनकी प्रतिभाए  भी दम तोड़ देगी। अब सवाल यह उठता है कि इस स्थिति का जिम्मेदार कौन सरकार या हम ?


कानून तो है, लेकिन असर नहीं
सरकार भी  बाल श्रम को लेकर गंभीर  है। बाल श्रम अपराध की श्रेणी में आता है। इस कानून में संशोधन भी किया गया है। इस  कानून का उल्लंघन करने वालों की सजा एक वर्ष से बढ़ाकर दो वर्ष और जुर्माने की राशि 20 हजार से बढ़ाकर 50 हजार कर दी गई, जबकि दूसरी बार दोषी पाए जाने पर तीन वर्ष की सजा का प्राविधान है। यह शिक्षा के अधिकार कानून के तहत किया गया है, जिसमें 6-15 वर्ष तक के बच्चे को अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया गया है। कानून बन जाने के बाद 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे किसी कार्यस्थल पर काम नहीं कर पाएंगे। लेकिन कानून बनाने के बाद इसे सख्ती से लागू नहीं किया गया। शासन प्रशासन कार्रवाई के नाम पर साल में एक बार अभियान  चलाकर मात्र खानापूर्ति कर रहा है। अकेले राजधानी में हजारों बच्चे चाय की दुकानों से लेकर जोखिम वाले कारखानों में काम रहे हैं। इस बात की जानकारी विभागी अधिकारियों को भी है, लेकिन सब मौन धारण करें है।

बाल मजदूरी के कारण
लाख कोशिशों के बाद भी  बाल मजदूरी रुक नहीं रही। आखिर क्यों, इस सवाल का जवाब तलाशने पर गरीबी से सामना होता है। गरीबी के कारण मां बाप बच्चों को स्कूल भेजने  के बजाये दुकानों पर काम के लिए भेज  देते है ताकि परिवार की आय बढ़ सके। इसके अतिरिक्त जनसंख्या बढ़ोत्तरी और बेरोजगारी भी  इसका मुख्य कारण है।

हम भी  जिम्मेदार
बाल मजदूरी के लिए हम सरकार को दोष देते नही थकते मगर हकीकत यह है कि इसके लिए हम सभी जिम्मेदार है। अपने बच्चों को तो हम घर का काम करने से भी  रोकते हैं, मगर दूसरों के बच्चों से अपने घर के काम कराने में नहीं हिचकते। देखा जाये तो बाल श्रम एक सामाजिक कुरीति है, जिसे हर कोई जाने अनजाने बढ़ावा दे रहा है।

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2001 की जनगणना के आकड़ों के अनुसार 25.2 करोड़ कुल बच्चों की आबादी की तुलना में, 5-14 वर्ष आयु समूह के 1.26 करोड़ बाल श्रमिक है। इनमें से  लगभग  12 लाख बच्चे ऐसे खतरनाक व्यवसायों में काम कर रहे हैं, जो बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम के अंतर्गत आते है। हालांकि  2004-05 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, काम करने वाले बच्चों की संख्या 90.75 लाख होने का अनुमान है।

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बाल श्रम के खिलाफ कानून
बाल श्रम कानून के तहत 14 साल के कम उम्र का कोई भी  बच्चा किसी फैक्ट्ररी या खदान में काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया जायेगा और न ही किसी अन्य खतरनाक नियोजन में नियुक्त किया जायेगा (धारा 24)।
बाद में इस बाल श्रम (निषेध व नियमन) कानून 1986 में संशोधन हुआ जिसमें बताया गया कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को 13 पेशा और 57 प्रक्रियाओं में, जिन्हें बच्चों के जीवन और स्वास्थ्य के लिए अहितकर माना गया है। उसमें नौकरी देना अपराध की श्रेणी में आ गया।
फैक्टरी कानून 1948 - यह कानून 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के नियोजन को निषिद्ध करता है। 15 से 18 वर्ष तक के किशोर किसी फैक्ट्ररी में, तभी नियुक्त किये जा सकते हैं, जब उनके पास किसी अधिकृत चिकित्सक का फिटनेस प्रमाण पत्र हो। इस कानून में 14 से 18 वर्ष तक के बच्चों के लिए हर दिन साढ़े चार घंटे की कार्यावधि तय की गयी है और रात में उनके काम करने पर प्रतिबंध लगाया गया है।
•ाारत में बाल श्रम के खिलाफ कार्रवाई में 1996 में उच्चतम न्यायालय के उस फैसले से आया, जिसमें संघीय और राज्य सरकारों को खतरनाक प्रक्रियाओं और पेशो में काम करने वाले बच्चों की पहचान करने, उन्हें काम से हटाने और उन्हें गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने का निर्देश दिया गया था। न्यायालय ने यह आदेश भी  दिया था कि एक बाल श्रम पुनर्वास सह कल्याण कोष की स्थापना की जाये, जिसमें बाल श्रम कानून का उल्लंघन करने वाले नियोक्ताओं के अंशदान का उपयोग हो।

वर्जन -
हम लोग सर्वे करवाते है उसके आधार पर जो बच्चे दुकानो और कारखानों में काम करते हुए पाये जाते है उनको रिहा करवाया जाता है। इसके अलावा बच्चों से काम करवाने वाले मालिकों के खिलाफ भी  कानूनी कार्रवाई करवाते है। लोगों के बताने और सर्वे में बाल मजदूरी कर रहे बच्चों को छुड़वाने में कठिनाई होने पर पुलिस की मदद भी  लेते है .......डॉ.अंशुमानी शर्मा चाइल्ड लाइन कमेटी

..... जब इस मामले से श्रम आयुक्त शालिनी प्रसाद से बात करने की कोशिश की गई, तो उनके पीआरओ ने फोन उठा कर कहा कि मैडम मीटिंग में व्यस्त है बाद में बात करना। फिर जब दोबारा से फोन किया गया, तो मैडम का फोन उठा ही नहीं।

Tuesday, 24 February 2015

कांग्रेस के लिए दिल्ली चुनाव ने बजाई खतरे की घंटी

 लखनऊ। 16वीं लोकसभा के आम चुनाव और उसके बाद हुए कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के जनाधार में लगातार गिरावट होती जा रही है। हाल में ही हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बाद इस बात पर भी सवाल खड़ा होने लगा है कि क्या वाकई में कांग्रेस मुक्त भारत  की शुरूआत हो गई है। दिल्ली से इसको जोड़कर इसलिए देखा जाना जरूरी है क्योंकि दिल्ली कांग्रेस का गढ़ माना जाता है। लगातार 15 साल तक दिल्ली पर कांग्रेस का कब्जा रहा है, लेकिन बीते चुनाव में 70 सीटों में से एक भी  सीट नहीं जीत पाई। इसके अलावा उसके मत प्रतिशत में गिरावट आई है।
अर्श से फर्श की ओर
आजादी के बाद कांग्रेस सबसे मजबूत राजनीतिक दल के रूप में उभरी। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में पार्टी ने पहले संसदीय चुनावों में शानदार सफलता पाई और ये सिलसिला 1967 तक अनवरत चलता रहा। नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक समाजवाद और गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को सरकार का मुख्य आधार बनाया, जो कांग्रेस पार्टी की पहचान बनी।  इन्दिरा गांधी के समय में भी  कांग्रेस ने कई उतार चढ़ाव देखे। मगर, इन्दिरा और कांग्रेस में मौजूद वरिष्ठ नेताओं की कूटनीति के दम पर कांग्रेस ने फिर से आम आदमी का भरोसा  जीत लिया। 1991 में चुनाव प्रचार के दौरान ही राजीव गांधी की भी  बम विस्फोट में मौत के बाद कांग्रेस को 232 सीटें मिलीं। इसके बाद कांग्रेस का जनाधार लगतार गिरता गया और वर्ष 1999 में 114 रह गईं। हालांकि 2004 के चुनावों में उसे 145 सीटें मिलीं। पार्टी ने सहयोगी दलों के सहारे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए का गठन किया। कांग्रेस को 2009 के लोकसभा  चुनाव 206 सीटें मिली थीं। 15वीं लोकसभा  चुनाव के बाद कांगे्रस के  जनाधार में गिरावट शुरू हो गई थी, जिसमें अन्ना हजारे के जनलोकपाल को लेकर चलाए आंदोलन ने आग में घी का काम किया। भाजपा ने कांग्रेस से आम आदमी की पार्टी का लेबल छीन कर उसको अरबपति और बड़े लोगों की पार्टी बना दिया। इस बहाने कांगे्रस का वोट बैंक भी  अपनी तरफ कर लिया।
लगातार गिर रहा जनाधार
2014 के आम चुनावों में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी और पार्टी 44 सीटों पर सिमट गई। इसके महज नौ महीने बाद ही दिल्ली उसकी ऐसी दुर्गति हुई कि पार्टी अपनी मौजूदगी तक दर्ज न करा सकी। इसके अलावा राजस्थान, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, झारखंड में भी  कांग्रेस के चुनाव हारने के साथ ही पिछले चुनावों की तुलना में इस बार मत प्रतिशत में भी  काफी कमी आई है। दिल्ली के इन नतीजे की धमक आने वाले चुनावों में कांग्रेस के लिए भारी  पड़ने वाली है। अब भाजपा के साथ आम आदमी पार्टी भी  कांग्रेस के लिए मुसीबत बनती जा रही है। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात उसका घटना जनाधार है। दलित, मुस्लिम और गरीब जो कांग्रेस का मजबूत जनाधार हुआ करता था, वह धीरे-धीरे दूसरी ओर खिसक रहा है।
नेतृत्व पर उठते सवाल
16 वीं लोकसभा  चुनाव के बाद और प्रदेशों में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद उसके नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े होने लगे है । पार्टी के भीतर ही नहीं जनता में भी  उसका भरोसा  उठता नजर आ रहा है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के खिलाफ कार्यकर्ता कई बार बगावत का बिगुल फूंक चुके हैं। प्रियंका गांधी को नेतृत्व देने को लेकर कई बार तो पार्टी के भीतर की नाराजगी सड़कों पर पोस्टर और बैनर के जरिये भी नजर आ चुकी है।
विपक्ष के तौर पर विफल
जिस तरह से आम चुनावों में कांग्रेस की हार हुई है उस तरह तो वो एक मजबूत विपक्ष की भूमिका भी नहीं निभ  पा रही है। राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर बतौर विपक्ष पार्टी के प्रदर्शन से लोगों की उम्मीदें टूटी हैं। चाहे लोकसभा  में विपक्ष के तौर पर हो या गुजरात, यूपी, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर, झारखंड, जैसे राज्यों में पार्टी विपक्ष की भूमिका  में लगातार जूझती और अस्तित्व बचाती नजर आ रही है।

कार्यकतार्ओं का गिरता मनोबल

पिछले चुनावों में जिस तरह से कांग्रेस की हार हुई है उससे उसके जमीनी स्तर पर कार्य करने वाले कार्यकतार्ओं का मनोबल टूटा है। पार्टी के बड़े नेताओं और कार्यकतार्ओं के बीच वाद संवाद भी  इस स्तर पर नहीं होता है, जिससे उनमें कोई सकारात्मक सोच को बढ़ावा मिले। इसके अलावा पार्टी के जमीनी स्तर के संगठन और कैडर निष्क्रिय पडेÞ हुए हैं।

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2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पिछले चुनाव की अपेक्षा 16.22 प्रतिशत मत कम हो गए। इसके अलावा विधानसभा चुनावों में दिल्ली में 2013 में 24.55 प्रतिशत तो 2015 में 9.7 प्रतिशत ही वोट मिला। राजस्थान के 2008 के चुनाव में 36.82 प्रतिशत वोट मिला, वहीं 2013 के चुनाव में 33.7 प्रतिशत वोट मिला। महाराष्ट्र के 2009 के चुनाव में 21.1 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ, वहीं 2014 के चुनाव में घटकर 18 प्रतिशत रह गया। जम्मू कश्मीर के 2008 के चुनाव में 18 प्रतिशत था वहीं, 2014 में 17 प्रतिशत हो गया।

Tuesday, 17 February 2015

स्कूल वैन व रिक्शे में सवार बच्चो की जोखिम में जान

लखनऊ। पीठ पर बैग, गले में पानी की बोतल और हाथों को हवा में लहराते शरारती बच्चों को मां कितने प्यार से तैयार करके स्कूल भेजती है मगर ये रिक्शे और स्कूल वैन में ठूसकर भरे बच्चे सुबह शाम स्कूल जाते हुए दिख जायेंगे। शहर की सड़कों पर ये नजारा आम होता है। शहर के लगभग सभी  स्कूलों में चलने वाले वाहन परिवहन नियमों का खुलकर दुरूपयोग कर रहे हैं।
अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के चक्कर में अभिभावक  स्कूलों द्वारा किये जा रहे परिवहन नियमों के उल्लंघन को भी  जान कर अनजान बने रहने में अपनी भलाई समझते है। अभिभावकों की चुप्पी और स्कूलों द्वारा किये जा रहे परिवहन नियमों की अनदेखी के बीच मासूमों की जान हर समय सांसत में पड़ी रहती है। देश के भविष्य के साथ ऐसे खिलवाड़ पर स्कूल प्रबंधन से लेकर जिम्मेदार विभाग  तक सभी  अपनी आंखे मूंदे है। पैसा कमाने के चक्कर में वैन मलिक और स्कूल प्रबंधन मासूम बच्चों की जिंदगी को ही दांव पर लगाये दिये दे रहे है।
मानकों की अनदेखी
सरकार द्वारा जो मानक तय किये गये है उनको पूरा नही किया जा जाता है।  पेट्रोल बचाने के चक्कर में स्कूल वैन के मलिक अलग से एलपीजी लगवा देते है। कुछ लोग तो घरों में इस्तेमाल होने वाले सिलेंडर का भी  प्रयोग कर रहे है। इन दोनों के प्रयोग से बच्चों पर खतरा बना रहता है। इसके अलावा पेट्रोल की बढ़ती कीमतों के बाद पैसा बचाने के चक्कर में स्कूली व निजी वाहनों में लोग गैस किट लगवा कर कम खर्च पर उनका संचालन कर रहे हैं। इससे वाहन मालिक भले ही मालामाल हो रहे हैं लेकिन उन वाहनों से स्कूल जाने वाले बच्चों की जान खतरे में ही रहती है। दर्जनों स्कूली वैन के चालक गैस किट के बजाए घरेलू सिलेण्डर से काम चला रहे हैं। स्कूली वाहनों में मानकों की अनदेखी करने का खमियाजा किसी दिन इन नन्हें-मुन्नें नौनिहालों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ सकता है।

क्षमता से अधिक बैठाते है बच्चें
स्कूलों में बच्चों को लाने और ले जाने के लिए लगे रिक्शा और वैन अपनी क्षमताओं से अधिक बच्चों को बैठाते है या यू कहे कि ठूसकर भरते है। पांच की क्षमता वाले रिक्शे पर दस बच्चों को बैठाते है। बच्चों के बैग के का भार  सो अलग । इसके अलावा स्कूली वैन भी  बैठाने की क्षमता से अधिक बच्चों को बैठाते है। ऐसे में छोटा सा हादसा भी  बडे हादसे में बदल सकता है।

तेज चलाते है वाहन
अक्सर स्कूली वैन बच्चों को जल्दी स्कूल ले जाने और घर छोड़ने के चक्कर में तेज चलाते है जबकि वैन पर लिखा होता है कि तेज चलाना मना है। इसके बाद भी  वैन चालक अपनी मनमानी करते है और स्कूल प्रबंधन जानकर भी  अंजान बने हुए है। ऐसे में यदि कोई हादसा होता है  तो उसका जिम्मेदार कौन होगा?

यातायात विभाग  भी  सुस्त
स्कूलों द्वारा मानकों की अनदेखी पर यातायात विभाग  ने भी  आखें बंद कर रखी है। इन स्कूलों के प्रभाव  के आगे विभाग  कार्रवाई करने में पीछे रहता है। विभाग अभियान  के नाम पर मात्र खानापूर्ति करते है। अक्सर देखा गया है कि जब कोई हादसा होता है तभी  प्रशासन की कुंभकरणी नींद खुलती है। आनन फानन में अभियान  चलाकर छोटे स्कूलों पर कार्रवाई करके अपनी पीठ थपथपा लेते है।
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अभी  हाल में ही पीजीआई क्षेत्र में न्यू पब्लिक स्कूल की वैन चालक की लापरवाही और तेज गति से चलाने के कारण पलट गई थी जिसमें कई बच्चे गंभीर रूप से घायल हो गये थे। मानकों की अनदेखी का इससे बड़ा सबूत नहीं मिल सकता इस वैन में डेढ़ दर्जन से अधिक बच्चे बैठे थे।
जानकारी के अनुसार इस वैन को स्टैंड वाला तेज गति से चला रहा था जिसके कारण वैन उसके नियंत्रण से बाहर हो गई और पास के नाले में जा गिरी जिसमें कई बच्चे घायल हो गये थे।


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क्या है नियम
प्राइवेट वाहन लगाने पर वह स्कूल के कलर कोड की होनी चाहिए।
प्रत्येक तीन महीने में प्रिंसिपल बस की स्थिति की समीक्षा करें।
ड्राइवर और कंडक्टरों की योग्यता मानक पर विचार-विमर्श होना चाहिए।
स्कूल वाहन का फिटनेस सर्टिफिकेट और ड्राइवर के पास लाइसेंस होना चाहिए।
खिड़कियों में जाली या तीन रॉड के साथ चढ़ने और उतरने की सही व्यवस्था होनी चाहिए।
स्कूली वाहन का रंग पीला और स्कूली वाहन लिखा होना चाहिए।
स्कूल वाहन में साइड मिरर और इंडीकेटर, लाइट दुरुस्त होनी चाहिए।
बैठने की सीटें सही और खिड़की से इतनी नीचे हो कि बच्चे बाहर सिर न निकाल सकें।
उपलब्ध सीट से ज्यादा बच्चों की संख्या नहीं होनी चाहिए
स्कूल वाहन की गति भी  निर्धारित होती है।
स्कूल वाहन में प्राथमिक उपचार की व्यवस्था होनी चाहिए
बस से नीचे उतरने के लिए विशेष इंतजाम हो ।
 ड्राइविंग के दौरान चालक ड्रेस में नेमप्लेट के साथ हो।
 बस का फिटनेस सर्टिफिकेट छह महीने से पुराना न हो।
15 साल से पुरानी बस स्कूल के लिए प्रयोग न की जाए।
सह चालक के पास न्यूनतम पांच साल का अनुभव , चालक के पास बस परमिट, लाइसेंस होना आवश्यक है।
बस के आगे-पीछे स्पष्ट रूप से स्कूल वाहन लिखा हो।
बच्चों के साथ एक शिक्षक की तैनाती आवश्यक।

अभिभावक  के वर्जन
इन्दिरा नगर निवासी प्राची सिंह का बेटा शहर के एक नामी स्कूल में पढ़ता है। उन्होंने बताया कि आये दिन हो रहे हादसों के कारण जब तक उनका बेटा घर नहीं आ जाता है तब तक उनको चैन नही मिलता है। ऐसे हादसों से दिल में डर तो बना ही रहता है। वो अक्सर वैन चालक को आराम से वैन चलाने की नसीहत देने में भी  नहीं चूकती हैं।

2..कल्याणपुर निवासी रोहित पाण्डेय ने बताया कि स्कूलों की गाड़ियों में बच्चों को इस तरहभरा  जाता है मानो वह अनाज की बोरी हो। शुरुआत में हमने सोचा था कि बच्चे को घर से स्कूल तक आने जाने के लिए स्कूल वैन लगा दे लेकिन स्कूल की वैनों की हालत व उसमें खचाखच भरे  बच्चों को देख कर हमारी हिम्मत नहीं हुई। इस लिए हम अपने बच्चे को खुद छोड़ने और लेने जाते है। 

ये काम आरटीओ का होता है वही इसके खिलाफ अभियान चलाते है उनके अभियान  में हम लोग सहयोग करते है। स्कूलों में मानकों के अनुरूप जो वाहन नहीं होते है उनके सख्त खिलाफ कार्रवाई की जाती है। 
ज्ञान प्रकाश चतुर्वेदी, एसपी ट्रैफिक 

Wednesday, 11 February 2015

‘सबका’ सहारा बनी आप



दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत से भाजपा विरोधियों में खुशी की लहर
मोहम्मद फाजिल
लखनऊ। गुजरात विधान सभा से शुरू हुई मोदी लहर ने राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर के साथ अन्य राज्यों में ऐतिहासिक जीत का परचम लहराया। वहीं, दिल्ली के चुनाव में औंधे मुंह गिर गई। एक तरफ जहां जम्मू-कश्मीर और महाराष्ट्र में जीत का इतिहास रचा वहीं, दिल्ली की जनता ने मोदी लहर को सिरे से नकार दिया। जनता ने आम आदमी पार्टी को पूर्ण बहुमत देते हुए भजपा और कांग्रेस को ऐतिहासिक हार का सादमा दे दिया।
लोकसभा  चुनाव में किया था आह्वान
दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद आम आदमी पार्टी में तो खुशी की लहर है, साथ ही ‘सबका’ (सपा,बसपा,कांग्रेस) में भी  मोदी लहर के थम जाने की खुशी साफ देखी जा सकती है। लोकसभा  चुनाव में मोदी ने जनता से सबका को हराने का आह्वान किया था। आप की जीत ने भाजपा विरोधी पार्टियों को भी  बोलने का मौका दे दिया है। दिल्ली विधानसभा  की 70 सीटों में आम आदमी पार्टी को 67 सीटें मिली हैं, जिसके दम पर आप सबसे बड़े दल के तौर पर उभार कर सामने आई है।
दिल्ली चुनाव जीतना भाजपा के लिए नाक का सवाल था क्योंकि इसके बाद 2015 में बिहार और 2017 में उत्तर प्रदेश में विधान सभा का चुनाव होना है। ये दोनों वो राज्य हैं, जिनके दम पर भ जपा को केंद्र की सत्ता हासिल हुई थी। दिल्ली में हार का असर इन राज्यों में होने वाले विधान सभा  चुनावों पर भी  पड़ सकता है, क्योंकि भा जपा अब तक केवल मोदी मैजिक के नाम पर ही चुनाव लड़ रही थी।
उत्तर प्रदेश की राजनीति पर असर
2014 के लोकसभा  चुनाव में भा जपा ने यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 71 सीटों पर जीत दर्ज कर प्रदेश में सपा, बसपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों की नींद खराब कर दी थी। भा जपा इसी मोदी मौजिक यूपी में होने वाले विधानसभा  चुनाव में भी  चलने की उम्मीद कर रही थी, लेकिन दिल्ली चुनाव के नतीजों के बाद भा जपा आला कामान को मोदी का खुमार उतारकर आत्ममंथन जरूरत है। मौजूदा समय में सत्तासीन सपा और प्रदेश के दूसरे सबसे बड़े दल बसपा को इस चुनावी नतीजों से प्रदेश में मोदी लहर के खत्म होने की उम्मीद भी  नजर आने लगी है। दिल्ली में आप की जीत से इन पार्टियों में एक नई आस जगी हैै कि प्रदेश में भी  मोदी लहर का असर धूमिल होता जा रहा है।

वर्जन-
दिल्ली की जनता ने •भ्रष्टाचार, महंगाई व झूठ बोलने वालों को नकार कर संघर्ष और ईमानदारी में विश्वास रखते हुये नया इतिहास रचा है। आम आदमी पार्टी की इतनी बड़ी जीत से साबित होता है कि दिल्ली की जनता ने झूठे, फरेबियों तथा बड़ी-बड़ी बातें करके जनता को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने वालोें को दरकिनार कर दिया है इस हार से  मोदी का जादू चलने की जो अफवाह बनी थी उस पर जनता ने  पूर्ण विराम लगा दिया है। इसके लिए दिल्ली की जनता बधाई के पात्र है।
-मुन्ना सिंह चौहान, प्रदेश अध्यक्ष, रालोद

2..
मोदी टीम ने कुछ महीने पहले स्वच्छ भारत अ•िायान चलाया था जिसमें उन्होंने झाड़ू पकड़ी थी। इस तरह मोदी जी ने आम आदमी पार्टी का खुद प्रचार किया और जनता ने उसे  स्वीकार करते हुए दिल्ली से भा जपा को ही साफ कर दिया।
-नावेद सिद्दीकी, सपा नेता व पूर्व राज्यमंत्री
3...
भाजपा ने लोगों को झूठ बोलकर और उनको धोखे में रखकर केंद्र में सरकार बनाई थी। सरकार के नौ महीने में ही जनता अपने आपको ठगा सा महसूस कर रही थी, जिसका जवाब उसने दिल्ली चुनाव में दे दिया। इस हार की जिम्मेदारी भा जपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की है क्योंकि उन्होंने प्रदेश स्तर के नेताओं को हटाकर दिल्ली चुनाव की कमान खुद संभाली थी। इस हार की जिम्मेदार लेते हुए उनको इस्तीफा दे देना चाहिए जिस तरीके से दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के नेताओं ने जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया है।
-जीशान हैदर, कांग्रेस नेता
4..
भ जपा जो दावा मोदी लहर का दावा कर रही थी असल में वो थी ही नहीं। इसका जवाब दिल्ली की जनता ने बखूबी दे दिया है। उत्तर प्रदेश में मोदी लहर तो क•ाी नहीं थी। इस बार के विधान स•ाा चुनाव में बसपा की सरकार फिर से आयेगी।
-नकुल दुबे, बसपा नेता व पूर्व मंत्री

5..
हम दिल्ली की जनता का फैसला स्वीकार करते हैं। आम आदमी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला है अब वो चुनाव में किये वादे पूरे करे और जनहित में कार्य करे। जो लोग आम आदमी पार्टी की जीत पर खुश हैं वो उधार के सिंदूर से श्रृंगार कर रहे हैं।
-मनीष शुक्ला, प्रवक्ता,  भाजपा 

Monday, 9 February 2015

सपा की मुश्किल बढ़ाने आ रहे है औवेशी

लखनऊ। महाराष्ट्र में खाता खोलने के बाद असदउद्दीन औवेसी की पार्टी आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ( एआईएमआईएम) उत्तर प्रदेश की राजनीति में कदम रखने की तैयारी कर रही है। उसके इस कदम से जहां एक तरफ समाजवादी पार्टी में बैचेनी है वहीं, उसकी धुर विरोधी •ाारतीय जनता पार्टी के अंदरूनी तौर पर खुशी की लहर है। एमआईएम के उत्तर प्रदेश में आने की भनक मात्र से ही यहां की राजनीति में सुगबुगाहट शुरू हो गई है। कट्टर विचारधारा की पार्टी होने एमआईएम के आने से आने वाले चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण की आशंका बढ़ गई है। मुस्लिम समुदाय के वोटों की गोलबंदी करना इस पार्टी का मुख्य उद्देश्य है यदि वो इसमें सफल रही तो सबसे ज्यादा नुकसान समाजवादी पार्टी को उठाना पड़ सकता है।
एमआईएम के फ्लोर मैनेजर और असदउद्दीन के छोटे भाई  अकबरुद्दीन औवेसी के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा भी  दर्ज हो चुका है। साम्प्रदायिक और भड्काऊ भाषणों के कारण उनकी पहचान एक कट्टर नेता के रूप हो गई है। इसी छवि के कारण एमआईएम पार्टी खास वर्ग को अपनी तरफ आकर्षित करने की तैयारी में है।
सोशल मीडिया से शुरू किया प्रचार
एमआईएम ने 2017 के यूपी विधान सभा  चुनाव के तहत बिना आये ही सोशल मीडिया के जरिये प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया है। जिसमें खास वर्ग के लोगों को जोड़ने का काम शुरू कर दिया गया है। वाट्स एप, फेसबुक, ट्विटर के जरिये प्रचार-प्रसार का काम जोरों पर है।
लखनऊ की सीटों पर असर
लखनऊ जिले में कुल नौ विधानसभा सीटें हैं जिसमें से मौजूदा समय में सपा के पास सात सीटें हैं। पहली बार सपा को लखनऊ इतनी ज्यादा सीटें मिली हंै। सपा का मुख्य वोट बैंक यादव यादव और मुस्लिम वर्ग है, इसी समीकरण के चलते उसको 16वीं विधानसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था। एमआईएम के आने से सपा के इसी समीकरण के टूटने का खतरा ज्यादा है क्योंकि मौजूदा समय लखनऊ की कई सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भ मिका निभाते हैं, जिसमें लखनऊ पश्चिम, लखनऊ मध्य, लखनऊ उत्तर, मलिहाबाद, बीकेटी की सीटें प्रमुख हैं। शहर की सभी  विधानसभा सीटों पर 33,18,600 मतदाता हैं, इसमें शामिल मुस्लिम मतदाता चुनावी नतीजों को काफी प्रभावित करते हैं। पुराने लखनऊ क्षेत्र में और मुस्लिम बाहुल क्षेत्रों में एमआईएम ने अपनी पकड़ बनानी शुरू कर दी है। इसके अलावा राजधानी से लगे जिले जैसे बाराबंकी, सीतापुर मेें भी  पार्टी अपनी जमीन बनाने में जुट रही है।
बसपा और कांग्रेस से हो सकता है गठबंधन
औवेसी की पार्टी 2017 में होने वाले विधान सभा चुनाव में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए बसपा या कांग्रेस से गठबंधन कर सकती है। मौजूदा स्थिति को देखते हुए यही दो पार्टियां हैं जो अपने अस्तित्व को बचाने और शहर में अपनी साख बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं। ऐसे में यदि इन दोनों पार्टियों से एमआईएम का गठबंधन होता है तो सबसे ज्यादा मुश्किल समाजवादी पार्टी को होगी।
आंध्र में मजबूत है एमआईएम
एआईएमआईएम मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश की पार्टी है। लोकसभा में एक सीट व आंध्र से अलग हुए नए राज्य तेलांगना विधानसभा में सात सीटें हैं। इस पार्टी ने महाराष्ट्र के विधान सभा चुनावों में सभा हिस्सा लिया था, जिसमें उसने दो सीटें जीती थी।